भारत के संसदीय लोकतन्त्र में सत्ता और विपक्ष की भूमिकाएं इस तरह निहित हैं कि सैद्धान्तिक व नीतिगत स्तर पर दोनों एक दूसरे के तीव्र विरोधी और प्रतिद्वन्द्वी होने के बावजूद इन पार्टियों के नेता व्यक्तिगत स्तर पर अच्छे मित्र हो सकते हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रीय मुद्दों व समस्याओं पर दोनों पक्षों के नेता दलगत हितों से ऊपर उठ कर राष्ट्रहित में अपने-अपने पूर्वाग्रहों का त्याग भी कर सकते हैं। भारत में विपक्ष की राजनीति का एक खास अंदाज रहा है कि इसने जनहित के मुद्दों पर सर्वदा सत्ताधारी दल को सचेत और सावधान करने का कार्य किया है जिससे सरकार समय पर कारगर व समुचित कदम उठा कर जनता के हितों की ही सुरक्षा कर सके परन्तु इस कार्य में परस्पर विरोधी दलों के नेताओं के बीच बैर-भाव की गुंजाइस इसलिए नहीं बनती क्योंकि दोनों का ही चुनाव आम जनता अपनी सोच की ताकत से करती है। इसका बहुत खूबसूरत नजारा आज राज्यसभा में जिस तरह पेश हुआ उस पर हर हिन्दोस्तानी को अपने लोकतन्त्र की फराख दिली और विशाल उदारता पर फख्र होगा।
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जिस भावुकतापूर्ण शब्द विन्यास और दिली उद्गारों से विपक्ष के सदन से अवकाश प्राप्त करने वाले कांग्रेस पार्टी के विपक्ष के नेता श्री गुलाम नबी आजाद को बिदाई दी उससे हर भारतवासी को यही सन्देश गया कि राजनीति केवल खेल भावना का ही नाम है जिसमें दोनों खेलने वाली टीमें अपना-अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करती हैं। श्री आजाद की संकट के क्षणों में एक जनसेवक के रूप में उठ कर खड़े होने की राष्ट्र सेवाभावी प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हुए श्री मोदी की आंखों में आंसुओं तक का छलक जाना यही बताता है कि राजनीति केवल राष्ट्रसेवा का ही पर्याय है। इसके साथ ही केन्द्र में कांग्रेस पार्टी के मन्त्री होने के बावजूद श्री मोदी के भाजपा के गुजरात के मुख्यमन्त्री रहते उनसे व्यक्तिगत स्तर पर जनसेवा के कार्यों में सहयोग करने की उनकी प्रवृत्ति ने श्री आजाद के कद को और ऊंचा उठा दिया। श्री मोदी जब सदन में श्री आजाद को बिदाई दे रहे थे तो ऐसा नहीं लग रहा था कि वह किसी ऐसा नेता के बारे में बोल रहे हैं जो विपक्ष के नेता की हैसियत से उनकी सरकार की नीतियों की कटु आलोचना तक करने में पीछे नहीं रहता था, बल्कि उस नेता के बारे में बोल रहे थे जो राष्ट्र निर्माण में अलग नजरिये के साथ अपना योगदान देना चाहता था।
वास्तव में लोकतन्त्र का वास्तविक अर्थ भी यही है कि अपने विरोधी का सम्मान इसलिए करों क्योंकि उसका विरोध तुम्हें ही लगातार कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहेगा। इसीलिए भारत के गांवों तक में कबीरदास जी का यह दोहा आम कहावत बन कर लोगों के होंठों पर आज भी तैरता है ‘‘निन्दक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय-बिना पानी माटी बिना निर्मल होत सुहाय’’ जबकि लोकतन्त्र का यह सिद्धान्त भी अपने स्थान पर उतना ही कारगर है कि विपक्षी दलों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे सरकार का विरोध करते हुए उसकी कमियों को उजागर करें और यदि संभव हो तो सत्ता से भी बाहर करें परन्तु यह कार्य पूरी तरह अहिंसक तरीके से मर्यादित होकर तर्कों के तीर चला कर ही किया जाता है न कि कर्कश शब्दों के इस्तेमाल और गाली-गुफ्तार की भाषा का प्रयोग करके। इस तरफ श्री आजाद ने अपने सदन के भीतर दिये गये अन्तिम भाषण में स्पष्ट किया और ताईद की कि विरोध संयत तरीके से वक्तव्यों और विचारों की मार्फत ही होना चाहिए। उन्होंने भी प्रधानमन्त्री की बात के लिए तारीफ की कि उनके हर सुख-दुख में भागीदारी करने के लिए उनका फोन जरूर आता था। यही तथ्य बताता है कि लोकतन्त्र में दो राजनीतिज्ञ दुश्मन नहीं होते बल्कि मित्र होते हैं। उनके बीच व्यक्तिगत संवाद लोकतन्त्र की जड़ों को मजबूत करता है। आज के नवोदित राजनीतिज्ञों को यह कला सीखनी होगी जिसके बिना वे राष्ट्र व जनसेवा में वह सहयोग नहीं दे सकते जिसके लिए आम जनता उनका चुनाव करती है।
1963 में जब समाजवादी नेता पहली बार चुन कर लोकसभा में आये तो उन्होंने योजना आयोग की इस अवधारणा की परखचियां उड़ा दीं कि आम हिन्दोस्तानी की दैनिक आय 15 आने है। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि यह आय मात्र तीन आने रोज है। जब संसद में एक निजी संकल्प के तौर पर यह विषय लाये तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने उनके भाषण को सदन में बैठ कर बहुत गौर से सुना और जब चर्चा समाप्त हो गई तो उन्होंने डा. लोहिया के हाथ में हाथ डाल कर चाय की चुस्कियां लीं। यह तब था जब डा. लोहिया ने यह पोस्टर छपवा कर बंटवाया था कि जिस देश का आम आदमी रोजाना तीन आने में अपना गुजारा करता हो उस देश का प्रधानमन्त्री अपने ऊपर रोजाना लगभग 12 हजार रुपए खर्च करता है।
भारत का संसदीय इतिहास ऐसे उद्हारणों से भरा पड़ा है। एक और समाजवादी नेता आचार्य कृपलानी प्रखर विपक्षी नेता थे और उनकी पत्नी श्रीमती सुचेता कृपलानी कांग्रेस की वरिष्ठ नेता थीं। दोनों सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे की नीतियों की तीव्र आलोचना करते थे मगर घर में सौहार्दतापूर्वक रहते थे। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि वह मनुष्य की दृष्टि को विराट बनाता है जिसमें निजता नीतियों की गुलाम नहीं होती। क्योंकि व्यक्ति से ही विचार उपजते हैं, विचारों से व्यक्ति पैदा नहीं होते। अतः व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में मूल भाव प्रेम किसी विचार का मोहताज नहीं होता। यह नियम जाति व धर्म के अलगाव पर भी लागू होता है जो मानवता का आधार है। अतः आज राज्यसभा में मोदी-आजाद विचार विनिमय लोकतन्त्र की आत्मा का ही छायांकन कहा जायेगा।