बिहार में नीतीश बाबू के तेवर - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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बिहार में नीतीश बाबू के तेवर

बिहार में मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यू) व भाजपा के बीच खटास पैदा होने का मतलब राज्य शासन में अस्थायित्व के अहसास की शुरूआत मानी जायेगी।

बिहार में मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यू) व भाजपा के बीच खटास पैदा होने का मतलब राज्य शासन में अस्थायित्व के अहसास की शुरूआत मानी जायेगी। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि नीतीश बाबू बिहार के प्रभावशाली नेता हैं मगर उनकी पार्टी हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में प्रभावहीन रही है क्योंकि यह तीसरे नम्बर पर मात्र 43 विधायक ही जिता पाई।
मूल रूप से नीतीश बाबू इस राज्य की समाजवादी धारा के नेता हैं जिनका स्व. जार्ज फर्नांडीज के साथ सबसे निकट का सम्बन्ध रहा। जार्ज फर्नांडीज स्वयं में अपनी राजनीति के अंतिम उत्कर्ष काल में सबसे ज्यादा उलझाव भरे नेता रहे क्योंकि 90 के दशक में स्व. वीपी सिंह के जनता दल के बिखरने पर उन्होंने समता पार्टी बनाई और कालान्तर में इसका गठबन्धन स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरपरस्ती में चलने वाली भाजपा से किया।
जार्ज फर्नांडीज का यह हृदय परिवर्तन उस समय बहुत से राजनैतिक प्रेक्षकों के लिए आश्चर्य का विषय था। सबसे ज्यादा उस समय आश्चर्य इस बात पर हुआ था कि जिस फर्नांडीज ने 1977 में पहली बार केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनने पर यह नारा बुलन्द किया था कि ‘कोका कोला गो,’  वह वाजपेयी सरकार की सरकारी कम्पनियों की विनिवेश नीति का पक्षधर कैसे हो गया? इसके पीछे स्व. जार्ज फर्नांडीज का विशुद्ध ‘गैर कांग्रेस वाद’  था जिसे उनके गुरु स्व. डा. राम मनोहर लोहिया उन्हें घुट्टी में पिला कर गये थे।
नीतीश बाबू जार्ज फर्नांडीज की इसी राजनीतिक फसल में तैयार हुए परिपक्व बिहारी नेता हैं। अतः वाजपेयी मन्त्रिमंडल में स्व. जार्ज साहब के साथ वह भी महत्वपूर्ण मन्त्री पदों पर रहे जिनमें कृषि व रेलवे प्रमुख थे। इन पदों पर रहते हुए नीतीश बाबू अपनी छवि एक आदर्शवादी नेता के रूप में बनाने में एक हद तक सफल रहे (विशेष रूप से गैसल रेल दुर्घटना होने पर जब उन्होंने रेल मन्त्री पद से इस्तीफा दिया)।
बिहार में भाजपा के पास स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह के बाद कभी कोई प्रभावशाली नेता नहीं रहा। हालांकि स्व. जगदम्बी प्रसाद यादव ने यह स्थान भरने का भरपूर प्रयास किया परन्तु उनके भाजपा के अध्यक्ष रहते भी पार्टी को बिहार राज्य में कभी अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी थी।
अतः भाजपा ने 2004 के बाद श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व को आगे रखने की नीति पर चलना शुरू किया और 2005 के विधानसभा चुनावों में पहली बार किसी दूसरी पार्टी के नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का प्रयोग किया मगर इससे पूर्व ही 2002 के करीब समता पार्टी का विलय श्री शरद यादव की पार्टी जनता दल में हुआ और 2003 में इसे जनता दल (यू) का नाम दिया गया।
2005 के चुनाव में जद (यू) व भाजपा एक गठबन्धन के तहत मैदान में उतरे और चुनावों में इन्हें तूफानी सफलता मिली जिसने लालू  प्रसाद के 15 साल पुराने राज को समाप्त कर डाला।  लालू इससे पूर्व ही जनता दल से अलग होकर अपनी पृथक पार्टी राष्ट्रीय जनता बना चुके थे। अतः नीतीश बाबू बिहार में लालू राज के सशक्त विकल्प के रूप में उभरे और उनका यह राज 15 वर्ष बाद आज भी बिहार में जारी है।
हालांकि विगत महीने हुए इस राज्य के चुनावों में सत्ताधारी गठबन्धन को हाशिये पर ही बहुमत मिला है मगर इस बार कमाल यह हुआ कि नीतीश बाबू की पार्टी जद (यू) उस भाजपा की पिछलग्गू बन गई जिसे 2005 से अपने पीछे रख कर नीतीश बाबू ने राज्य में पंख फैलाने का अवसर दिया था परन्तु 2014 के लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय फलक पर श्री नरेन्द्र मोदी के उभरने से बिहार में भी जबर्दस्त बदलाव आया और भाजपा को शानदार सफलता मिली।
यह सब तब हुआ जब 2013 में  नीतीश बाबू ने  भाजपा से अपना गठबन्धन समाप्त करके अकेले अपने बूते पर लोकसभा चुनाव लड़ा था मगर 2015 के आते-आते नीतीश बाबू ने अपना दोस्त बदला और लालू  की पार्टी के साथ मिल कर विधानसभा चुनाव लड़ा और शानदार सफलता प्राप्त की। यह दोस्ती 2017 तक चली और नीतीश बाबू ने पुनः पलट कर भाजपा के साथ हाथ मिला लिया और 2019 का लोकसभा चुनाव इसी दोस्ती के चलते लड़ा, इसके बाद से चीजें बदलने लगीं और नीतीश बाबू धीरे-धीरे भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता पर ज्यादा निर्भर करने लगे।
यह क्रम पिछले महीने हुए विधानसभा चुनावों में पूरा हो गया जिसके तहत उनकी पार्टी पूरी तरह भाजपा के रहमोंकरम पर आकर टिक गई।  अतः इसकी प्रतिध्व​िन पैदा होना स्वाभाविक प्रक्रिया थी और वह अरुणाचल प्रदेश में जाकर सुनी गई। यहां के सात जद (यू) विधायकों में से छह ने भाजपा की सदस्यता ले ली।
नीतीश बाबू का इससे विचलित होना स्वाभाविक था। अतः उन्होंने जनता दल (यू) के अध्यक्ष पद पर अपनी पार्टी के किसी दूसरे नेता को बैठाना सामयिक समझा और राज्यसभा सदस्य श्री राम चन्द्र प्रसाद सिंह को इस पर बैठा दिया और स्वयं घोषणा कर दी कि उनकी मुख्यमन्त्री बने रहने की ज्यादा इच्छा नहीं है।
उनके इस कथन के पीछे के मन्तव्य को आसानी से पढ़ा जा सकता है जो बिहार में अपनी बची-खुची जमीन बचाने से प्रेरित है। अतः उनकी पार्टी की तरफ से यह कहा जाना कि वह ‘लव जेहाद’ कानून का समर्थन नहीं करती है, भाजपा से  राजनैतिक अलगाव का भाव दिखाता है और बिहार में इस मुद्दे पर बड़े राजनैतिक विवाद का संकेत करता है।

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