‘‘बोझ कितना भी हो, लेकिन कभी उफ तक नहीं करता।
कंधा बाप का साहब, बड़ा मजबूत होता है।’’
आज मेरे पिता और पंजाब केसरी दिल्ली के सम्पादक स्वर्गीय श्री अश्विनी कुमार की तीसरी पुण्यतिथि है। पिता के मजबूत कंधों के बिना मैं स्वयं और मेरे दोनों छोटे भाई अर्जुन और आकाश स्वयं को अधूरा महसूस करते हैं। आज हम सभी अपने कंधों पर उनकी विरासत को लिये चल रहे हैं। उनके बिना कभी हमारा आत्मविश्वास लड़खड़ाने लगता है तो मेरी मां श्रीमती किरण चोपड़ा हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़तीं। मैं स्वयं पिता जी की तस्वीर के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता हूं और उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास करता हूं। कुछ ही क्षण बाद मेरा आत्मबल बढ़ जाता है और मैं सूर्य की पहली किरण के धरती पर पड़ते ही मजबूत इरादों के साथ काम में जुट जाता हूं। आज परिवार के लिए बहुत भावुक क्षण हैं और पिताश्री के पुराने सम्पादकीय पढ़ रहा हूं। मुझे याद है कि बतौर सांसद उन्होंने लोकसभा में खड़े हाेकर चीन और पाकिस्तान की साजिशों के बारे में सरकार को आगाह किया था तो एक बड़े नेता ने उनके भाषण के बीच टोकाटाकी शुरू की तो उन्होंने अपनी वाणी से उस नेता को बैठने को विवश कर दिया था। वे दूरदृष्टा थे और कई बार भविष्य में होने वाली घटनाओं पर अपना स्पष्ट आकलन प्रस्तुत कर देते थे। जो अाज सत्य साबित हो रहा है। उनकी लेखनी दलगत राजनीति से कहीं ऊपर थी। यद्यपि वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर सांसद निर्वाचित हुए थे लेकिन उन्होंने बतौर सम्पादक अपने विचारों को व्यक्त करने में किसी दबाव को स्वीकार ही नहीं किया। उनकी लेखनी के आलोचक भी कोई कम न थे लेकिन उनके विरोधी भी यह स्वीकार करते थे और अक्सर कहते थे ‘‘लिखने में तो अश्विनी का कोई जवाब नहीं।’’ जिस बात को कहने में बड़े-बड़े हिम्मत नहीं दिखाते, वह उन्हें शब्दों की चाश्नी में भिगोकर आसानी से कह देते थे। उनकी स्पष्टवादी और तीखी कलम के चलते ही पंजाब केसरी दिल्ली ने बहुत जल्द ही प्रतिष्ठा हासिल कर ली है।
पिताजी के रहते मैंने आत्मबोध का कोई प्रयास नहीं किया। उनके रहते हमारा आकाश उज्जवल रहा, सूर्य तेजस्वी लगता रहा और घर का आंगन खुशबूदार रहा। पिताजी के रहते हमारे चेहरे पर लकीरें नहीं आईं। मैंने पिताजी की डांट-फटकार भी खाई, साथ ही उनका स्नेह भी पाया। पिताश्री कभी-कभी बहुत सख्त तेवर अपनाते थे। लेकिन कुछ क्षण बाद ही वे करुणामयी हो जाते थे। मेरे पिताजी बहुआयामी व्यक्तित्व के रहे। उन्होंने जो भी भूमिका निभाई उसमें उन्होंने उत्कर्ष को छुआ। क्रिकेट खेली तो उसमें भी लोकप्रियता के शिखर को छुआ। कलम सम्भाली तो लाखों पाठक उनकी लेखनी के दीवाने हो गए। राजनीति में कदम रखा तो पहले ही चुनाव में करनाल संसदीय सीट से जबर्दस्त जीत हासिल की। मैं यह सोचकर आज भी सिहर उठता हूं कि मेरे पिता अश्विनी कुमार पहले आतंकियों की गोलियों से छलनी पड़दादा लाला जी का शरीर अपनी गोद में रखकर घर तक लाए, फिर आतंकवादियों की गोली से छलनी दादा रमेश चन्द्र जी का शरीर अपनी गोद में रखकर आवास पर लाए थे। घर के वट वृक्ष गिर गए थे। कोई और होता तो कब का टूट गया होता। चुनौतियों ने उन्हें निर्भीक और साहसी बना दिया था। उन्होंने मुझे हमेशा यही समझाया कि,
‘‘लेखनी सत्य के मार्ग पर चले, लेखनी कभी रुके नहीं,
लेखन कभी झुके नहीं और यह अनैतिक समझौता भी न करे,
यह राष्ट्र की अस्मिता की संवाहक है और राष्ट्र को समर्पित हो।’’
उनकी लेखनी अंतिम सांस तक चलती रही। कैंसर से जूझते हुए भी उन्होंने अस्पताल के बैड पर बैठकर भी लिखना जारी रखा। जिस जद्दोजहद में उन्होंने अपना सम्पादकीय धर्म निभाया था उतनी ही जद्दोजहद में उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इट्स माई लाइफ’ लिखने में की। अस्वस्थ होने के बावजूद वह घंटों बैठकर 20-20 पृष्ठ लिखते रहे। उनका जीवन तो बस ऐसा ही था।
‘‘जिये जब तक लिखे खबरनामे
चल दिये हाथ में कलम थामे।’’
उनकी कलम को सम्भाल कर मैं अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर रहा हूं। मेरी लेखनी का विश्लेषण तो पंजाब केसरी के पाठक ही करेंगे। मां किरण लगातार मेरा मार्गदर्शन कर रही हैं। नम आंखों से हम पिताश्री को नमन करते हैं। मेरा लेखन ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है। आसमान में असंख्य तारे देखकर उन तारों में पिताश्री को तलाशता हूं। पापा…वी मिस यू। मैं और मेरे अनुज हम सब आपको बहुत मिस करते हैं। आपके आशीर्वाद से ही हम अब तक मिली सभी चुनौतियों का डटकर सामना कर पाए हैं और भविष्य में भी हमारा संकल्प डोलने न पाए, इसकी कामना करते हैं।