भारत की संसद और देश की संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली फिलहाल एेसे अग्नि परीक्षा के दौर से गुजर रही है जिसमें आम जनता द्वारा दिये गये वोट के आधार पर बनी सरकार को बिना झुलसे हुए बाहर निकलने की शर्त पर खरा उतरना था परन्तु लगता है कि राजनैतिक दलों ने खुद अपने ही पैरों पर कुल्हड़ी मारने का फैसला कर लिया है और वे इस अग्नि परीक्षा को किसी सर्कस में दिखाये जाने वाले आग के गोले से सुरक्षित बाहर निकलने का करतब बना देना चाहते हैं।
लोकसभा में बुधवार को जिस तरह भारत का वित्त विधेयक (सम्पूर्ण बजट) भारी हंगामे और शोर-शराबे के बीच बिना किसी बहस कराये हुए ध्वनिमत से पारित किया गया उससे आम जनता से वसूले हुए विभिन्न करों और शुल्कों से गठित भारत की एकात्म संचय निधि या कोष (कंसोलिडेटेड फंड) के न्यायपूर्वक खर्च किये जाने पर संशय खड़ा हो सकता है। इसकी वजह यह है कि लोकसभा में जनता के वोटों की ताकत पर चुनकर आये सदस्यों को इस कोष से निकाले जाने वाले धन की उपयोगिता की जांच व परख करने का अवसर ही नहीं दिया गया।
बेशक बजट सरकार की धन प्राप्तियों व खर्च का ब्यौरा ही होता है मगर यह किसी भी सरकार की आम लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने का वह उपकरण होता है जिसे लगाने के औजार संसद में मौजूद प्रत्येक राजनीतिक दल के सदस्य के हाथ में होते हैं। सरकार के राजस्व कोष पर चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से देश के आम मतदाता की हिस्सेदारी होती है और इस तरह होती है कि इसमें सत्ता और विपक्ष के सदस्यों के बीच भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि सभी जनता द्वारा चुने हुए होते हैं। अतः यदि सदन में शोर-शराबे या हंगामे को बजट को बिना विचार के ही पारित करने का बहाना बनाया जाता है यह अच्छी बात नहीं।
मगर संसद को सुचारू रूप से चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्तापक्ष की ही होती है और उसे देखना होता है कि उस प्रणाली की शुचिता पर दाग नहीं लगना चाहिए जो उसे हुकूमत में बिठाती है। यह अकारण नहीं है कि लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव सर्वसम्मति से होता है। अतः संसदीय प्रणाली में अध्यक्ष की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वह उस व्यवस्था की पूरी ताकत के साथ निरपेक्ष रहकर सुरक्षा करें जो उनकी ही अध्यक्षता में किसी भी दल की सरकार को हुकूमत के हकों से नवाजती है।
सरकार जो भी अधिकार प्राप्त करती है वह संसद के माध्यम से ही करती है और संसद का गठन भारतीय संविधान में बताये गये नियमों के अनुसार होता है। इसीलिए संसद के दोनों सदनों के सभापतियों को न्यायिक अधिकार भी दिये गये हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने जो खूबसूरत व्यवस्था हमें सौंपी है उसे हम किसी भी सूरत में तमाशा नहीं बना सकते मगर हमने जो रास्ता चुना है उस पर हम अपना खुद का ही तमाशा बना रहे हैं और शोर-शराबे के बीच ही महत्वपूर्ण विधेयक बिना किसी बहस के पारित कर रहे हैं और फिर कह रहे हैं कि लोकतन्त्र बहुमत की बलात् हठधर्मिता का शासन नहीं होता बल्कि आम सहमति का सम्यक मार्ग होता है।
हमारी इस दृष्टि का मूल आधार भी हमारी जनतन्त्रीय प्रणाली से बन्धा हुआ है क्योंकि लोकसभा में वही चुनकर आता है जिसे सर्वाधिक मत मिलते हैं, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हारने वाले प्रत्याशियों को जीतने वाले एक प्रत्याशी से कुल मिलाकर कम मत मिले हैं। अतः संसद के भीतर बहस कराकर सरकारी कामकाज पूर्ण करने का मन्तव्य इसी सिद्धान्त से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि सरकार सदन में चर्चा कराकर विपक्षी सदस्यों का मत जानने की कोशिश करती है और उनके मत का सम्मान भी करती है तथा जहां जरूरत होती है यथानुसार सुधार भी करती है क्योंकि विपक्षी सांसद भी जनता द्वारा ही चुने जाते हैं।
इसीलिए हमें यह ध्यान रखना होगा कि संसद किसी भी सूरत में असंगत और सन्दर्भहीन न बने क्योंकि भारत की पूरी शासन व्यवस्था केवल यही संस्था ढोती है। इसी के माध्यम से हम भारत के लोगों के जीवन को बदल सकते हैं, उन्हें खुशहाल बना सकते हैं और विकास के रास्ते पर आगे चल सकते हैं और सशक्त बना सकते हैं। बजट आम लोगों के सशक्तकरण का बहुत बड़ा जरिया होता है। यदि एेसा न होता तो हम पिछले सत्तर सालों में तरक्की करके आज वहां न पहुंचे होते जहां हम हैं। इस कार्य में भारत के हर राजनैतिक दल के शीर्ष पुरुषों का योगदान रहा है।
यही कारण था कि स्वयं संसद सदस्यों ने ही यह अहद किया था कि कोई भी विधेयक शोर- शराबे में पारित नहीं किया जाना चाहिए मगर हम तो बजट ही शोर-शराबे में पारित करके देश के राज्यों की विधानसभाओं को सन्देश दे रहे हैं कि जनप्रतिनिधियों की पंचायतों में काम कैसे करना है यह मत देखो बल्कि यह देखो कि इनमें कैसे पहुंचना है ? एेसा भी नहीं है कि एेसा पहली बार हुआ हो।
2004 में जब मनमोहन सरकार चुनकर आयी थी तो विपक्ष के नेता के रूप में श्री लालकृष्ण अाडवाणी ने उनके मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोगों को दागी बताकर उनके परिचय स्तर पर ही टकराव का वातावरण बना दिया था और बजट बिना बहस के ही पारित किया गया था। इसके बाद जब मनमोहन सरकार अपने अंतिम वर्ष में थी तो भी बिना बहस के ही बजट पारित हुआ था। मगर दोनों ही अवसरों पर लोकसभा के मध्य हंगामा नहीं हो रहा था। यह पहला अवसर है कि अध्यक्ष के आसन के पास नारेबाजी होती रही और वित्त विधेयक पारित हो गया। आखिरकार 31 मार्च तक बजट पारित करने की जिम्मेदारी से विपक्षी सांसद भी बंधे हुए थे क्योंकि सरकारी खर्चा चलाने के लिए यह जरूरी होता है।