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जांच एजेंसियों की कार्रवाई पर राजनीति ठीक नहीं

केंद्र की मोदी सरकार भ्रष्टाचार पर नो टालरेंस की नीति पर सख्ती से अमल कर रही है। अक्सर राजनीतिक दलों और नेताओं के भ्रष्टाचार पर मौन सहमति के दिन अब लद गए हैं। अब जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार से जुड़े हर छोटे-बड़े मामले पर तत्परता से कार्रवाई कर रही हैं। जांच एजेंसियों की राडार पर सरकारी अफसर, कर्मचारी, नेता और कंपनिया हैं। पिछले दो-तीन साल में जांच एजेंसियों ने ताबड़तोड़ कार्रवाई भ्रष्टाचारियों के खिलाफ एक्शन लेकर नई मिसाल कायम की है लेकिन जब बात राजनीतिक भ्रष्टाचार की होती है तो इस मुद्दे पर सारे राजनीतिक दलों में मौन सहमति और समझ दिखाई देती है लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ का नारा देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जो मुहिम चलाई थी, आज उसका असर साफ तौर पर दिखाई देता है। इस मुहिम में सबसे खास बात यह है कि अब जांच एजेंसिया सिर्फ सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को ही नहीं राजनीतिक दलों और नेताओं के भ्रष्टाचार पर भी ताबड़तोड़ कार्रवाई कर रही हैं।
जांच एजेंसियों की कार्रवाई जब किसी नेता पर होती है तो वो इसे सरकार की साजिश और राजनीति से प्रेरित बताने में पलभर की भी देरी नहीं करता। वहीं जांच एजेंसियों के छापों को निंदा और आलोचना भी शुरू हो जाती है। जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये जाते हैं। और तो और कई मामलों में जांच एजेंसी पर जानलेवा हमले तक किये जाते हैं। जांच एजेंसियां भले ही सरकार के अधीन आती हैं लेकिन उनकी भी जवाबदेही देश के कानून और संविधान के प्रति है। जांच एजेंसियां बिना किसी कारण के या सुबूत के अभाव में कैसे किसी पर कोई कार्रवाई कर सकती हैं। जांच एजेंसियों को सरकार का टूल बताना असल में यह साबित करता है कि ऐसे लोगों का देश के संविधान के प्रति कोई सम्मान नहीं है।
असल में जांच एजेंसियां सरकार के अधीन कार्य करती हैं और उसी के आदेश पर कार्रवाई करती हैं। इस कारण उनकी हर कार्रवाई को राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है। किसी भी देश में जांच एजेंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। भारत की कुछ जांच एजेंसियों की विश्वभर में साख है। कार्रवाई करने पर विपक्ष का हो-हल्ला शुरू हो जाता है। विपक्ष ऐसी कार्रवाई को सत्ता से प्रभावित मान सवाल उठाता है।
पिछले दो-तीन महीने में ऐसे कई प्रकरण सामने आए जब राजनीतिक दलों और नेताओं ने जांच एजेंसियों को सवालों के कठघरे में खड़ा किया। बीती जनवरी को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी पश्चिम बंगाल के राशन घोटाले में तृणमूल कांग्रेस के नेता शाहजहां शेख के आवासों पर छापेमारी करने गई थी। इस दौरान ईडी के अधिकारियों की गाड़ियों पर पत्थरबाजी की गई। आरोप टीएमसी नेता शाहजहां शेख के समर्थकों पर लगा। अधिकारियों पर हमले के बाद राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने ममता सरकार को कानून व्यवस्था संभालने की हिदायत दी।
ईडी ने एक बयान में कहा कि हमलावर लाठी, पत्थर और ईंट से लैस थे। इस घटना में ईडी के तीन अधिकारी गंभीर रूप से घायल हो गए। घायल ईडी अधिकारियों को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया है। हिंसक भीड़ ने ईडी अधिकारियों के निजी और आधिकारिक सामान जैसे उनके मोबाइल फोन, लैपटॉप, नकदी, वॉलेट आदि भी छीन लिए। इसके साथ ही ईडी के कुछ वाहनों को भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया गया।
वहीं भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी जांच के लिए समन पर समन भेजती रही लेकिन वो जांच एजेंसी के सामने पेश नहीं हुए। आखिरकार दबाव पड़ने के बाद हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी हो पाई। ऐसा ही मामला दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल से जुड़ा है। करोड़ों रुपये के शराब घोटाले में जांच एजेंसी केजरीवाल से पूछताछ करना चाहती थी। एजेंसी ने 9 समन केजरीवाल का भेजे, लेकिन वो कोई न कोई बहाना बनाकर समन को टालते रहे। कोर्ट से जब उन्हें राहत नहीं मिली तो ईडी ने उन्हें गिरफ्तार करने में देरी नहीं की। केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेता केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद भी झूठे तथ्य और खबरें फैलाने से बाज नहीं आ रहे हैं। ये हालात तब हैं जब इसी मामले में आम आदमी पार्टी के दो बड़े नेता मनीष सिसोदिया और संजय सिंह महीनों से जेल की रोटियां खाने को मजबूर हैं।
आम आदमी पाटी के नेता केजरीवाल की गिरफ्तारी से बुरी तरह बौखलाये हुए हैं। आप नेता केंद्र सरकार पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगा रहे हैं। दिल्ली के शराब घोटाले के तार दक्षिण भारत तक से जुुड़े बताये जाते हैं। आम आदमी पार्टी के नेताओं के अलावा आधा दर्जन से ज्यादा इस केस से जुड़े लोग भी सलाखों के पीछे हैं। बावजूद इसके आप के नेता बड़ी बेशर्मी से जांच एजेंसी की निष्पक्षता और कार्रवाई पर सवाल उठाने से बाज नहीं आ रहे। जो केजरीवाल किसी समय में खुद को कट्टर ईमानदार बताते थे। अगर वो इतने ही पाक साफ हैं तो उन्हें स्वयं जांच एजेंसी के सामने पेश होकर अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए थी लेकिन वो जांच एजेंसी के सामने पेश होने से बचते रहे। केजरीवाल का यही आचरण उन्हें संदेह के घेरे में लाता है और आज अपने कर्मों की वजह से ही वो गिरफ्तार भी हुए हैं और अगर वो पाक साफ हैं तो उन्हें न्यायालय से जरूर न्याय भी मिलेगा।
जांच एजेंसियां न तो किसी राजनीतिक दल के अधीन होती हैं, न केंद्र सरकार का ही कोई हस्तक्षेप रहता है। यह पुख्ता साक्ष्य के बाद संवैधानिक रूप से समन जारी करती हैं और अपनी बेगुनाही के प्रमाण प्रस्तुत करने का अवसर भी देती हैं। ऐसे में जब किसी राजनीतिक दल के भ्रष्टाचारी को ये जांच एजेंसियां पकड़ती हैं तो वे इन पर आरोप लगाने लगते हैं। सही तो यही होगा कि शोर मचाने और आरोप लगाने के बजाय जांच एजेंसियों को अपना काम करने दें।
जांच एजेंसियां अपना काम निष्पक्ष होकर बढ़िया तरीके से करती हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियों की दखलंदाजी की वजह से चर्चाओं में आ जाती हैं। जिस दल के नेता पर कार्यवाही होती है वही बेवजह टीका-टिप्पणी करने लगते हैं। सीबीआई हो या ईडी में काम करने वाले हैं तो अपने ही समाज के। कई बार तो जांच एजेंसियों वाले कार्मिकों का तुरंत तबादला भी हो जाता है। भ्रष्टाचार इतना फैल रहा है जिसकी कोई सीमा नहीं। अपने दांव-पेंच लगाकर मामलों को रफा-दफा करने के चक्कर के कारण भी ये चर्चा में आ जाती हैं।
जांच एजेंसियां सत्ताधारी राजनीतिक दल के हाथों की कठपुतलियां बन गई हैं, यह सोच विपक्षी दलों ने बना ली है। इन विरोधियों ने अपनी इस सोच के सहारे जनता को भी काफी हद तक अपने प्रभाव में ले लिया है। यही वजह है कि जांच एजेंसियां अपना काम अच्छा करे या बुरा, बुराई का ठीकरा इनके सिर ही फोड़ने का सिलसिला चल निकला है। कोई भी जांच हो, देश भर में उनके विरोध में बार-बार सवाल उठाना एक चलन-सा बनता जा रहा है। आजकल जांच एजेंसियों पर राजनीति हावी है। जंाच एजेंसियों का गठन संविधान के नियमों के अंतर्गत हुआ है। ऐसे में जांच एजेंसियों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वो किसी के भी दबाव में न आकर निष्पक्ष और स्वतंत्र रहकर ही कार्य करें ताकि उन पर कोई उंगली न उठा सके और आम आदमी को कभी उनकी निष्पक्षता पर संदेह न हो।

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