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मायावती के फैसले से उपजे सवाल

बसपा लोकसभा का चुनाव अकेले ही लड़ेगी। अपने 68वें जन्मदिन पर मायावती ने यह घोषणा की लेकिन यह चौंकाने वाली खबर नहीं है। कांग्रेस की इच्छा जरूर थी कि बसपा भी ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा बने लेकिन प्रयास अनमने से थे, क्योंकि समाजवादी पार्टी का दबाव और धमकी थी कि बसपा को शामिल किया गया तो वह ‘इंडिया’ से अलग हो जाएगी। सपा सबसे बड़े राज्य उप्र में प्रमुख विपक्षी दल है और अखिलेश यादव नेता प्रतिपक्ष हैं। हालांकि उप्र विधानसभा में बसपा का एक ही विधायक है लेकिन लोकसभा में 10 सांसद हैं। मायावती काफी समय से कह रही हैं कि वे अकेले लड़ेंगी क्योंकि गठबंधन का फायदा कम और नुक्सान ज्यादा होता है। हालांकि उनकी यह बात तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। फिर भी उनके अकेले लड़ने की घोषणा से बसपा के सांसद दूसरी पार्टियों में अपनी जगह देखने लगे हैं। उनको पता है कि अकेले लड़ने पर फिर बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं जीतेगा। बसपा 2014 में अकेले लड़ी थी। तब वह बड़ी पार्टी थी और उत्तर प्रदेश की सत्ता से हटे उसे सिर्फ दो साल हुए थे।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले हुए विधानसभा चुनाव में उनको 26 फीसदी वोट और 80 सीटें मिली थीं। इसलिए 2014 का लोकसभा चुनाव उन्होंने पूरी ताकत से लड़ा था। उनकी पार्टी को 20 फीसदी वोट मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिली। उसके बाद दो विधानसभा चुनावों में उनका वोट घटते-घटते 13 फीसदी पर आ गया है और उनका सिर्फ एक विधायक जीता है। इसलिए इस बार अकेले लड़ने पर बसपा एक भी सीट नहीं जीतेगी और वोट भी बहुत कम मिलेंगे। 2019 में बसपा ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। तब उसके खाते में 10 सीटें आई थी। इस आधार पर आकलन करें तो बसपा किसी भी गठबंधन का हिस्सा रहती है तो उसे चुनावी फायदा होता है।
हाल के दिनों में एनडीए की रीतियों-नीतियों को लेकर जिस तरह का उदार रवैया बसपा सुप्रीमो दिखा रही थीं उससे भी ऐसे अंदाजे लगाए जा रहे थे। यहां तक कि पिछला लोकसभा चुनाव उन्होंने जिस सपा के साथ लड़ा था उसके मुखिया को उन्होंने रंग बदलने वाला गिरगिट तक कह दिया। मायावती ने कहा कि जिन दलों के साथ बसपा ने पिछले चुनावों के दौरान गठबंधन किया था उनके वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं होते।
बहरहाल, मायावती के एकला चलो के फैसले से इंडिया गठबंधन को झटका जरूर लगा है, खासकर देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी को आस थी कि मायावती विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनेंगी तो वोटों का बिखराव रोका जा सकेगा। खासकर दिल्ली की कुर्सी का रास्ता दिखाने वाले उत्तर प्रदेश में बढ़त लेने के लिये, जहां वंचित समाज में पार्टी की मजबूत पकड़ रही है। जहां तक मायावती के वोट ट्रांसफर न होने वाले आरोप का सवाल है तो अन्य विपक्षी दल इस आरोप से सहमत नहीं हैं।
बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 1993 व 2019 में विधानसभा व लोकसभा के चुनाव लड़े थे। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि वर्ष 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा में वोट ट्रांसफर हुआ था। जिसके चलते राज्य में गठबंधन की सरकार बनी थी। हालांकि, वर्ष 2014 में सपा-बसपा अलग-अलग चुनाव लड़े थे लेकिन वर्ष 2019 में दोनों साथ मिलकर लड़े। इससे दोनों दलों को फायदा हुआ। यहां तक कि बसपा को ज्यादा फायदा हुआ क्योंकि 2014 में भाजपा के राजनीतिक गणित से मात खाकर बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। जबकि गठबंधन के साथ बसपा 2019 में दस लोकसभा सीट पाने में सफल रही। हालांकि, सपा को ज्यादा लाभ नहीं हुआ, उसके खाते में सिर्फ पांच लोकसभा सीट ही आईं।
बशर्ते गठबंधन बसपा और दलितों के पक्ष में हो। यकीनन मायावती का अपना जनाधार आज भी है, हालांकि दलित वोट बैंक भाजपा की तरफ भी गया है। यदि मायावती निष्क्रिय रहती हैं तो उनका परंपरागत वोट बैंक जो उनकी ठोस संपदा है, भी भाजपा या कांग्रेस की ओर जा सकता था। लिहाजा ‘एकला चुनाव’ बसपा के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।
ये बसपा-सपा गठबंधन की ताकत थी कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद चली राम लहर में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था लेकिन चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती का जनाधार अब इतना नहीं रह गया कि पार्टी किंग मेकर की भूमिका निभा सके। उसके परंपरागत जनाधार पर मोदी कैमिस्ट्री ने सेंध लगा दी है। बहरहाल, बसपा का अकेले चुनाव लड़ना भाजपा को रास आएगा क्योंकि इससे विपक्षी गठबंधन का जनाधार खिसकेगा जिससे भाजपा की जीत की राह आसान हो सकती है।

– राजेश माहेश्वरी 

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