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राज्यसभा चुनावः बदलता रंग

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संसद के उच्च सदन राज्यसभा के खाली हो रहे 58 स्थानों के लिए हो रहे चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच जो शतरंजी बाजी खेली जा रही है और जिस तरह प्रत्याशियों के चयन को लेकर पैंतरेबाजी हो रही है उससे लगता है कि कुछ एेसा घट सकता है जो संख्याबल के गणित के समीकरणों को उलट-पलट कर सकता है। हालांकि इन चुनावों का आम जनता से सीधा लेना-देना नहीं होता है मगर उन लोगों से होता है जिन्हें आम जनता अपने-अपने राज्य की विधानसभाओं में चुनकर भेजती है इसीलिए और भी ज्यादा गंभीर मसला है क्योंकि लोकतन्त्र को अपने माथे पर चिपकाये लोग ही इन चुनावों में वोट डालते हैं।

ये विधायक ही राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव करते हैं। इन चुनावों में विभिन्न दलों के सदस्यों की संख्या से यह तय होता है कि उनके कितने प्रत्याशी चुने जा सकते हैं। अगर आवश्यक विधायक संख्या से अधिक किसी दल के सदस्य होते हैं तो इन अतिरिक्त विधायकों का वोट राजनैतिक सौदेबाजी का खुलेआम जरिया बन जाता है। इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश है जहां बहुजन समाज पार्टी के केवल 19 विधायक हैं और सदस्य चुने जाने के लिए न्यूनतम 37 विधायकों की जरूरत है, अतः इस पार्टी की नेता सुश्री मायावती ने सौदा किया कि राज्य के फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में वह समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों का समर्थन करेंगी और बदले में समाजवादी पार्टी अपने अतिरिक्त विधायकों के वोट राज्यसभा चुनाव में बसपा के प्रत्याशी को देगी।

श्री मुलायम सिंह की सपा के कुल 47 विधायक हैं जिनके बूते पर वह अपना एक प्रत्याशी राज्यसभा में भेजने के बाद शेष 10 विधायकों के वोट बसपा प्रत्याशी को हक में कर देंगे। विधानसभा में सात विधायक कांग्रेस पार्टी के हैं, ये भी बसपा प्रत्याशी को वोट डाल देंगे जिससे बसपा के प्रत्याशी के हक में कुल 36 वोट ही आयेंगे। एक वोट के लिए बसपा प्रत्याशी को राष्ट्रीय लोकदल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के एक-एक विधायक या तीन निर्दलीयों में से किसी एक के समर्थन की जरूरत पड़ेगी।

इसमें मतदान खुला होता है। अर्थात प्रत्येक पार्टी का विधायक अपने दल की ओर से नियुक्त नेता को वोट देने के बाद बैलेट पत्र को उसे दिखाकर बक्से में डालता है। यह व्यवस्था इसलिए मनमोहन सरकार के दौरान शुरू की गई थी कि गुप्त मतदान में विधायक अपने वोट का सौदा कर जाते थे मगर खुले मतदान में एेसा नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं हो सकती क्योंकि हमने गुजरात से कांग्रेस के नेता श्री अहमद पटेल के निर्वाचन में देखा था कि किस प्रकार कांग्रेसी विधायकों को एकजुट रखने के लिए भयंकर प्रयास इस पार्टी के नेताओं को करना पड़ा था और विधायकों को कर्नाटक राज्य में सुरक्षित रखा गया था। तब गुजरात में कांग्रेस के बागी बने नेता शंकर सिंह वाघेला ने भारी संकट खड़ा कर दिया था।

लगभग एेसी ही स्थिति उत्तर प्रदेश में बनने के आसार पैदा हो सकते हैं क्योंकि राज्य विधानसभा में भाजपा नीत एनडीए के 324 विधायक हैं जिनके आधार पर वह कुल दस रिक्त हुए राज्यसभा स्थानों में से आठ पर अपनी विजय आसानी से प्राप्त कर लेगी और उसके पास 28 वोट अतिरिक्त बचेंगे। इन 28 मतों को वह बसपा या सपा को देना पसन्द नहीं करेगी अतः उसने अपनी तरफ से तीन और प्रत्याशियों के नामांकन भरवा दिये इनमें से एक उद्योगपति है तो एक भाजपा का महासचिव है। यह उस उत्तर प्रदेश की हालत है जहां वैचारिक सिद्धान्तवादी राजनीति का न जाने कब का खात्मा हो चुका है।

जबकि दूसरी तरफ प. बंगाल में कुल पांच राज्यसभा स्थान रिक्त हुए हैं और यहां सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बैनर्जी ने अपने अतिरिक्त विधायक वोटों का समर्थन कांग्रेस के प्रत्याशी श्री अभिषेक मनु सिंघवी के हक में करके तय कर दिया है कि पांचवें से छठा प्रत्याशी खड़ा ही न हो सके क्योंकि वामपंथी अपने बूते पर सदस्य नहीं भेज सकते हैं। कहने का मन्तव्य यह है कि उत्तर प्रदेेश की जाति मूलक राजनीति ने नीचे से लेकर ऊपर तक पूरी तरह अवसरवादिता का माहौल बना दिया है। ताजा स्थिति यह है कि समाजवादी पार्टी के एक सदस्य अनिल अग्रवाल ने भाजपा का दामन थाम लिया है। यदि हम प्रत्याशियों के चयन का जायजा लें तो कुछ मामलों को छोड़कर निराशा होती है।

मोदी सरकार के उन आठ मंत्रियों का नामांकन इन चुनावों में विभिन्न राज्यों से करा दिया गया है जो लोकसभा के सदस्य नहीं थे मगर शेष प्रत्याशियों का चयन विद्वता के आधार पर न करके जातीय व सामाजिक गणित को ध्यान में रखकर किया जाना कई प्रकार के सवाल पैदा करता है। इस सदन का मानक 80 के दशक तक केवल योग्यता और विद्वता रहा जिसमें धीरे-धीरे गिरावट आनी शुरू हुई और इस कदर आयी कि भारत के हर क्षेत्र का उद्योगपति इस सदन का सदस्य बनता चला गया जिनमें विजय माल्या भी शामिल था। इसके बावजूद इस सदन में मौजूद कुछ नेता आज भी एेसे हैं जो पूरे देश के लिए आदर्श समझे जा सकते हैं मगर एक जमाने में मुम्बई के माफिया किंग कहे जाने वाले विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के चक्कर लगाने वाले नारायण राणे की उम्मीदवारी से हैरत होती है कि राज्यसभा सदस्य बनने का पैमाना किस तरह बदला है?

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