मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल निश्चित रूप से पहले कार्यकाल के मुकाबले ज्यादा चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि सम्पन्न हुए चुनावों में भाजपा को मिला अपार समर्थन लोगों की बढ़ी हुई जागृत अपेक्षाओं का प्रतीक है, जो पिछली अपेक्षाओं से पूरी तरह अलग है। बेशक राष्ट्रीय सुरक्षा मोर्चे पर जगे स्वाभिमान ने 2019 में भाजपा को ऐतिहासिक चुनावी विजय दिलाने में केन्द्रीय भूमिका निभाई है जिसकी वजह से सामाजिक व आर्थिक मोर्चे पर पिछले पांच साल के दौरान उत्पन्न चुनौतियां नेपथ्य में चली गईं परन्तु अब इन चुनौतियों का सामना नई सरकार को करना होगा क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध आम आदमी की रोजी-रोटी और व्यक्तिगत विकास से है।
स्पष्ट है कि नई सरकार में संसदीय प्रणाली के ज्ञानी और वित्त क्षेत्र के गुणी श्री अरुण जेेतली नहीं होंगे अतः उनकी अनुपस्थिति में मोदी सरकार को संसद के भीतर विपक्ष की आलोचना को ढाल बनकर निःशब्द करने वाला रणबांकुरा नदारद रहेगा। वैचारिक नुक्तों से आलोचना के तीरों को कुन्द करने की कला में माहिर श्री जेतली की पिछली सरकार में मौजूदगी भाजपा की वह कदीमी जायदाद मानी जाती रही है जिसे बड़ी मेहनत से इस पार्टी ने पिछले कई दशकों में तैयार किया था।
लोकतन्त्र किस प्रकार जमीन से उठे हुए नेताओं को गंभीर से गंभीर और महीन से महीन विषयों की समस्याएं हल करने के लिए तैयार करता है, इसका जीता-जागता उदाहरण श्री जेतली को माना जा सकता है जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत एक छात्र नेता के रूप में की और संसदीय जीवन में राष्ट्रवादी वैचारिक कलेवरों के तहत सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की समीक्षा में लोकपक्ष की व्याख्या की। उनका स्थान नई मोदी सरकार में जो नेता भी लेता है उस पर दोहरी जिम्मेदारी होगी कि वह संसद से लेकर सड़क तक आर्थिक नीतियों का लोकोन्मुख चेहरा उजागर करने में सक्षम हो सके। विशाल बहुमत की नौका पर बैठकर मोदी सरकार को भारत की उन समस्याओं का ठोस समाधान ढूंढना होगा जो युवा पीढ़ी के सामने मुंह बाये खड़ी हैं। इनमें सबसे ज्यादा भयावह स्थिति बेरोजगारी की है जो पिछले 45 वर्षों में चरम सीमा पर है। इसके साथ ही भारत के धुर दक्षिणी राज्यों के लोगों की अपेक्षाओं पर भी इसे खरा उतरना होगा जिन्होंने भाजपा को समर्थन देने में अपना हाथ खींचे रखा है।
तमिलनाडु, केरल व आन्ध्र प्रदेश से भाजपा के सहयोगी दल अन्नाद्रमुक का केवल एक सांसद ही विजयी होकर आया है। यह स्थिति पूरी तरह 1977 के लोकसभा चुनावों जैसी भी नहीं है जिसमें पूरे दक्षिण भारत से तब की विजयी जनता पार्टी के टिकट पर एकमात्र विजयी प्रत्याशी स्व. नीलम संजीव रेड्डी थे जो बाद में राष्ट्रपति बने थे। कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्य में भाजपा को शानदार सफलता मिली है और तेलंगाना में इसके 4 प्रत्याशी विजयी हुए हैं मगर इन दोनों राज्यों की संस्कृति पर मध्य व पश्चिमी भारत का सांस्कृतिक घेरा फैला हुआ है जबकि तमिलनाडु व केरल की स्थिति पूरी तरह अलग है। इसलिए नई दिल्ली की राष्ट्रीय सरकार पर राष्ट्रवादी नजरिये के भीतर ही जिम्मेदारी कम नहीं है। यह खाई वैचारिक पक्ष से ज्यादा सम्बन्ध रखती है। अतः राष्ट्रवादी मोर्चे पर भी मोदी सरकार को सांझा और सर्वसम्मत सूत्र के सहारे ही अपना सफर पूरा करना होगा।
दूसरा सबसे गंभीर विषय कृषि क्षेत्र का है जिसके साथ आदिवासियों और वनवासियों की मूल समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं। जमीन की उत्पादक सार्थकता दोनों ही मामलों में मूल विषय है। इसके साथ ही प्राकृतिक स्रोतों के अधिकार व उत्पादकता का मसला जुड़ा हुआ है। ये विषय बहुत दुरूह हैं जिनका हल किसी एक फार्मूले से नहीं निकल सकता। अन्धाधुंध औद्योगीकरण इससे जुड़ी समस्याओं का हल नहीं हो सकता क्योंकि यह राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहज समानुपाती भागीदारी को नकारते हुए मालिक को नौकर बना देता है। सन्तुलित विकास के लिए सबसे ज्यादा साधना इसी मोर्चे पर किये जाने की जरूरत है। तीसरी सबसे बही समस्या शिक्षा के क्षेत्र की है जो लगातार बाजार की ताकतों के हवाले होती जा रही है।
भारत में समतामूलक समाज की स्थापना करने में शिक्षा ही ऐसा एकमात्र औजार है जिसके प्रयोग से आने वाली पीढ़ियों में सभी प्रकार के सामाजिक व आर्थिक भेदभावों और कुरीतियों का खात्मा करने में सफल हुआ जा सकता है। यह कार्य निजी या कार्पोरेट क्षेत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता जिसका लक्ष्य अधिकाधिक मुनाफा कमाना होता है। समाज के प्रत्येक वर्ग को शिक्षा के क्षेत्र में एक समान अवसर प्रदान करना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है जिससे प्रत्येक व्यक्ति निजी स्तर पर अपना उन्मुक्त विकास करने के योग्य हो सके और अपनी प्रतिभा के बूते पर आगे बढ़ सके। जाहिर है यह सारा काम 5 वर्ष के भीतर नहीं हो सकता मगर इसके लिए मजबूत आधारभूत ढांचा जरूर खड़ा किया जा सकता है।
सवाल सिर्फ यह है कि नये भारत की दिशा हम क्या तय करना चाहते हैं? हमारे लिए न चीन का उदाहरण है और न अमेरिका का क्योंकि हम न तो कम्युनिस्ट विचारधारा के पोषक हैं और न स्वच्छन्द पूंजीवाद के। हमने गांधीवाद का वह रास्ता पकड़ा है जिसमें ‘दरिद्र नारायण’ को अभीष्ट माना गया है। यह व्यक्ति की अधिकतम निजी आवश्यकताओं की सीमा को तो स्वीकार करता है परन्तु न्यूनतम सीमाओं की जीवनोपयोगी सहजता को भी स्वीकार करता है और सम्पत्ति का अधिकार भी देता है और सरकार को जन कल्याणकारी तेवर देता है। इसका मतलब यही है कि सरकार लोक कल्याण में सत्ता को सेवा रूप दे।