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शिवसेना – भाजपा गठबन्धन

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भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना के गठबन्धन को लेकर जिन अटकलों का बाजार गर्म है उसकी असलियत यही है कि यह गठजोड़ एक–दूसरे को मुसीबत से बचाने के लिए ही बना है अतः इसके टूटने का खतरा नहीं है। शिवसेना ने जिस तरह सत्ता में रहते हुए विपक्ष की भूमिका निभाने में महारथ हासिल की है उससे भाजपा विरोधी दल व्यर्थ में ही उत्साह में आ जाते हैं और शिव सेना पर भरोसा जताने लगते हैं। सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि शिवसेना भारतीय राजनीति के लोकतान्त्रिक लोक-मानकों के अनुरूप कोई एेसा राजनीतिक दल नहीं है जिसकी बुनियाद सामाजिक गैर-बराबरी मिटाने के मानवीय समता के सिद्धान्तों पर टिकी हुई हो। यह विशुद्ध रूप से व्यवहार में उग्र क्षेत्रीय पहचान के आधार पर सियासत करने वाली वंशवादी पार्टी है। इसका लक्ष्य सामाजिक समरसता न होकर क्षेत्रीय पहचान को सर्वपरि मानने का रहा है। इसमें भी यह पार्टी महाराष्ट्र राज्य के क्षेत्रीय विविधता के उन अंचलों की अनदेखी करती है जो इसे समग्रता प्रदान करते हैं। यही वजह है कि शिवसेना शुरू से ही विदर्भ क्षेत्र के लोगों की मांग के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाती है। वास्तव में भाजपा के लिए शिवसेना ने स्वयं को इस तरह मजबूरी बना दिया है कि उसके साथ के बिना यह सत्ता में आने का ख्वाब नहीं देख सकती।

भाजपा के लिए इस राज्य में जमीन बनाने का कार्य शिवसेना ने ही किया है और इसके उग्र व अन्ध राष्ट्रवाद ने भाजपा के सकल राष्ट्रवाद के लिए माहौल तैयार किया है, यही वजह है कि भाजपा 1967 तक जब उत्तर भारत के मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली व हरियाणा–पंजाब आदि राज्यों में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हो गई थी तो महाराष्ट्र में इसकी हाजिरी नाम मात्र की ही थी। नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय होने के बावजूद तत्कालीन जनसंघ यहां की जनता को लुभाने में कामयाब नहीं हो पाया था। मगर इसी दौरान स्व. बाल ठाकरे ने जब शिवसेना का गठन करके मुम्बई शहर में दक्षिण भारतीय नागरिकों के खिलाफ नफरत फैलाने का आन्दोलन चलाया तो इस पार्टी ने मराठा नागरिकों के बीच अपनी पैठ बनानी शुरू की और धीरे–धीरे इसने इस महानगर के मजदूर संगठनों से लेकर महानगरपालिका राजनीति में क्षेत्रीय उग्रवाद की पैठ बनाई।

मगर बाद में 1975 में इमरजैंसी लगने पर बाल ठाकरे ने इसका पुरजोर समर्थन किया और इसके आवरण में अपने संगठन को समाजसेवी रूप में पेश करके प्रशासन और जनता के बीच फैली संवादहीनता को समाप्त करने का एकांगी रास्ता अपनाया। इसके बाद बाल ठाकरे ने मुम्बई महानगर पालिका में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने पर जोर देकर इस महानगर की पूंजी मूलक परियोजनाओं में अपना हस्तक्षेप करके अपने विस्तार को मराठावाद की शक्ल में आकार दिया और अन्ध राष्ट्रवाद को अपना मूल मन्त्र बनाया। इससे महाराष्ट्र की राजनीति में जातिमूलक पहचान का द्वीप तैयार होने लगा और सामाजिक गैर बराबरी समाप्त करने की वह राजनीति हाशिये पर जाने लगी जो कांग्रेस व रिपब्लिकन पार्टी जैसे दलों को इस राज्य में प्रमुखता देती थी। शिवसेना के इस नये राजनितिक अवतार ने भाजपा को वह खाली जगह भरने का अवसर प्रदान कर दिया जो क्षेत्रीय पहचान व जातिमूलक तत्वों के उभार से राष्ट्रवाद का एेसा व्याकरण तैयार कर रहा था जिसमें सामाजिक व आर्थिक मुद्दे स्वतः पीछे जा रहे थे। इस खाली स्थान को भरने में राष्ट्रवाद की पहचान से जानी जाने वाली भाजपा को कोई दिक्कत नहीं हुई और शिवसेना व भाजपा एक दूसरे के लिए जरूरी अवयव बनते चले गए। अतः हम जो यदा–कदा इन दोनों पार्टियों के बीच विवाद या खटपट देखते रहते हैं वह केवल अपना–अपना हाथ ऊंचा रखने की कवायद ही होती है, इसका बहुत ज्यादा गूढ अर्थ नहीं होता है।

राज्य का पिछला विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने अलग–अलग रह कर लड़ा था। मगर बाद में सरकार बनाने के लिए दोनों ने हाथ मिलाया। इसकी वजह यही थी कि दोनों पार्टियां कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस की लगातार सत्ता से उपजे असन्तोष का अधिकाधिक अपने फायदे में लाभ लेना चाहती थीं। इसके बाद मुम्बई महानगर पालिका चुनावों में भी हमें यही नजारा देखने को मिला इसी प्रकार हाल ही में जो महाराष्ट्र विधानसभा व लोकसभा के उप-चुनाव हुए हैं उनमें भी शिवसेना व भाजपा एक दूसरे के खिलाफ लड़े। मगर इन उपचुनावों के प्रचार में शिवसेना केन्द्र व राज्य की सरकारों में शामिल होने के बावजूद पूरी तरह विपक्षी दल की भूमिका में आक्रमणकारी तरीके से आई। भंडारा-गोंदिया लोकसभा उप-चुनाव में उसने विपक्षी राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रत्याशी का समर्थन किया जबकि पालघर विधानसभा सीट पर उसने अपना खुद का प्रत्याशी खड़ा किया एेसा करके उसने भंडारा में विपक्षी प्रत्याशी की विश्वसनीयता में दरार डाली और पालघर में फड़नवीस सरकार के खिलाफ फैले असन्तोष को बांट दिया। यह कार्य उसने विपक्षी पाले में खेलते हुए इतनी खूबसूरती के साथ किया कि विरोधी दल भी उसकी सत्ता समर्थक भूमिका की आलोचना नहीं कर सके।

पालघर में तो भाजपा की जीत का श्रेय शिवसेना को दिया जा सकता है क्योंकि यहां क्षेत्रीय दलित पार्टी ‘बहुजन विकास अगाड़ी’ को शानदार वोट मिले जबकि कांग्रेस ने भी अपना प्रत्याशी खड़ा किया हुआ था। भाजपा व शिवसेना प्रत्याशियों के मतों में अन्तर बहुत ज्यादा नहीं रहा। यदि यहां शिवसेना का प्रत्याशी खड़ा नहीं होता तो सत्ता विरोधी वोटों का बंटवारा किसी भी सूरत में नहीं हो पाता। अतः यह सोचना फिजूल है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में शिवसेना अपनी भूमिका में कोई गुणात्मक परिवर्तन लाएगी। वह तो पहले से ही भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ रही है। इसका लाभ तो आपस में इन दोनों पार्टियों को ही हो रहा है और महाराष्ट्र से बाहर शिवसेना का कोई मतलब नहीं होता है। अतः जो भी गणित बैठेगा वह इसी दृष्टि से बैठेगा शिवसेना जितना विपक्ष की तरफ झुकेगी उतना ही ज्यादा नुकसान विपक्षी दलों को होने की संभावना बनेगी क्योंकि इसकी राजनीति विपक्षी दलों के समावेशी नजरिये में ही छेद कर डालेगी अतः इसका अन्तिम ठौर-ठिकाना केवल और केवल भाजपा ही बनी रहेगी।

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