भारत ने अफगानिस्तान के तालिबानों से पहली बार आधिकारिक वार्ता करके यह साफ कर दिया है कि वह इस देश की बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को तदनुरूप समयानुसार परिवर्तित करने का प्रयास कर रहा है। कतर की राजधानी ‘दोहा’ में भारतीय दूतावास में भारतीय राजदूत दीपक मित्तल व तालिबान के शीर्षस्थ नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई के बीच हुई बातचीत में भारत ने अपनी जो चिन्ताएं प्रकट की उनमें सबसे प्रमुख अफगानिस्तान में आतंकवादी गतिविधियां की समाप्ति से लेकर इस देश में फंसे हुए भारतीयों को जल्दी से जल्दी निकालना है। इसके साथ बहुत से अफगानी नागरिक भी हैं जो भारत आना चाहते हैं। उन सभी की कुशल वापसी चाहने के साथ भारत ने शर्त रखी है कि उन सभी अफगान अल्पसंख्यकों को भी उनके कहने पर भारत आने की इजाजत मिलनी चाहिए जो अफगानिस्तान छोड़ना चाहते हैं। अफगानिस्तान में ‘हजारा मुस्लिम’ शिया सम्प्रदाय के लोग अल्पसंख्यक श्रेणी में ही आते हैं और अनुभव बताता है कि तालिबान इनके साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करते हैं। हिन्दू, सिखों के अलावा इन लोगों को भी भारत सुरक्षित स्थान लगता है। अतः इस तथ्य से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि दुनिया में भारत की पहचान किस विशाल मानवीय स्वरूप में होती है? इसकी यही पहचान भारत को विश्व सभ्यताओं के विशिष्ट स्वरूप में निरूपित करती है जिस पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए।
जहां तक तालिबान से बात करने का सवाल है तो यह आज की अफगानिस्तान की हकीकत है क्योंकि अमेरिका के इस देश से जाने के बाद हुकूमत की बागडोर तालिबान के पास इस प्रकार आयी है जैसे कोई ‘पेड़ से पका फल गिरता है’। इन तालिबानों ने जिस तरह 15 अगस्त को काबुल पर कब्जा किया उससे ही स्पष्ट हो गया था कि अमेरिका की इच्छा इस देश में किसी कानून सम्मत वाजिब और जायज सरकार की प्रतीक्षा करना नहीं है। तालिबानों के पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को देखते हुए यह आशंका निर्मूल नहीं है कि अफगानिस्तान में आतंकवाद पनप सकता है और इसका उपयोग भारत के खिलाफ भी हो सकता है। अतः तालिबानियों से इस मुद्दे पर भारत का आश्वासन मांगना पूरी तरह उचित व सामयिक है। इसके साथ दुनिया को यह भी देखना होगा कि अफगानिस्तान में चली लम्बी आतंकवाद विरोधी मुहीम का खामियाजा इस देश के निरीह नागरिकों को न उठाना पड़े।
आज काबुल की हालत यह है कि लोगों के घरों में खाने- पीने का सामान नहीं हैं। सभी बैंक बन्द हैं और लोगों के हाथ में नकदी की भारी कमी है। हद तो यह हो गई है काबुल में पानी की एक बोतल की कीमत 20 डालर बताई जा रही है। इसका मतलब यही है कि इस देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट है जबकि अमेरिका तालिबानियों के लिए 84 अरब डालर की आधुनिक सैन्य सामग्री छोड़ कर गया है। सबसे पहले दुनिया के सभी सभ्य देशों का फर्ज यह बनता है कि वे अफगानिस्तान में ऐसी हुकूमत बनवाने का प्रयास करें जिसमें हर धर्म के नागरिक को बेखौफ होकर अपना काम धन्धा करने की छूट मिले। मगर फिलहाल यह सपने की बात ही लगती है क्योंकि तालिबान पूरी तरह तास्सुबी व जेहादी मानसिकता से ग्रस्त संगठन है और उस पर तुर्रा यह है कि पिछले 25 सालों से ‘तहरीके तालिबान पाकिस्तान’ के नाम पर इन्हें पाकिस्तान के अन्दर ही इस्लामी मुल्क बनाने की तालीम दी जाती रही है। अतः चिन्ता का विषय अफगानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका भी है। पाकिस्तान की अभी तक हर चन्द कोशिश रही है कि अफगानिस्तान में भारत के लोगों के प्रति अफगानी नागरिकों के स्वाभाविक प्रेम-भाव को नष्ट किया जाये और हिन्दू-मुसलमान का सवाल खड़ा करके हिन्दोस्तान के प्रति नफरत पैदा की जाये। परन्तु भारत की विशालता और उद्दात्त चरित्र व सांस्कृतिक समग्रता को देखते हुए आम अफगानियों के लिए भारत किसी दूसरे घर के बराबर ही रहा है। अब यह काम तालिबानियों का है कि वे किस प्रकार अपनी धरती का शासन चलाना चाहते हैं और अपने लोगों को वे अधिकार देना चाहते हैं जिनकी मांग वे कर रहे हैं।
भारत ने तो एक प्रकार से तालिबानियों को इस मुल्क में काबिज मान लिया है। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में भारत की सदारत में जो हालिया प्रस्ताव पारित किया गया है उसमें साफ कहा गया है ‘अफगानिस्तान की भूमि किसी भी अन्य देश को धमकी देने या आतंकवादियों को संरक्षण देने के लिए प्रयोग नहीं होनी चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय तालिबानों से यह अपेक्षा करता है कि वे अपने पूर्व किये गये वादों पर टिके रहेंगे और अफगान समेत विदेशी नागरिकों को दूसरे देश जाने के लिए सुरक्षित रास्ते देंगे’ सुरक्षा परिषद में यह प्रस्ताव ब्रिटेन, फ्रांस व अमेरिका द्वारा रखा गया जिसके पक्ष में भारत ने भी वोट किया मगर रूस व चीन ने अपनी अनुपस्थिति दर्ज कराई। इन दोनों देशों का मानना है कि प्रस्ताव में आतंकवाद का विशिष्ट रूप से जिक्र नहीं किया गया है और आर्थिक स्थिति के बारे में कही कोई बात नहीं है। मगर एक सवाल उठता है कि अगर तालिबानों ने अपने किये गये वादों पर अमल नहीं किया तो उसका परिणाम क्या होगा ? हालांकि प्रस्ताव में मानवीय अधिकारों को बहाल करने व आतंकवादियों का सफाया करने की बात कही गई है परन्तु आर्थिक पक्ष को छोड़ दिया गया है। बहुत साफ है कि भारत ने पश्चिमी देशों के नजरिये का समर्थन करके तालिबान के प्रति उदारता का परिचय दिया है जिससे किसी भी प्रकार की ‘आकस्मिकता’ का मुकाबला राष्ट्रीय हितों को देखते हुए किया जा सके। इस तर्क से कुछ विद्वान बेशक असहमत हो सकते हैं मगर ताजा हालात को देखते हुए भारत ने मध्य मार्ग को ही चुना है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com