थाइलैंड भारतीयों के लिए हमेशा से ही आकर्षण का केन्द्र रहा है। दक्षिण एशिया में केवल यही एक ऐसा देश है जो कभी किसी यूरोपीय देश का उपनिवेश नहीं रहा। सन् 1932 में थाइलैंड में संवैधानिक राजतंत्र और प्रजातंत्र की स्थापना हुई थी लेकिन यह देश प्रजातंत्र और राजतंत्र के बीच झूलता रहा है। प्रजातंत्र के मजबूत न होने की वजह से अभी तक 18 बार सेना द्वारा चुनी हुई सरकार का तख्ता पलटने के प्रयास हो चुके हैं। जिनमें 11 बार सेना सफल रही है। शायद ही किसी अन्य देश में इतने तख्ता पलट के प्रयास हुए होंगे। थाइलैंड की जनता ने समय-समय पर लोकतंत्र के लिए आंदोलन चलाए लेकिन सेना ने लोकतंत्र को बार-बार कुचला। थाइलैंड में रविवार को हुए चुनावों पर न केवल भारतीयों की बल्कि अन्य देशों की भी नजरें लगी हुई थी। अब तक मिले चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि आम चुनाव में सैन्य शासन विरोधी विपक्षी पार्टियों को बंपर सीटें मिली हैं। संकेत तो यही है कि थाइलैंड में करीब एक दशक से सत्ता पर काबिज सैन्य समर्थत सरकार की विदाई हो जाएगी। थाइलैंड की पॉपुलिस्ट फेयु थाई पार्टी को बंपर सीटें मिलती दिखाई दे रही हैं। जबकि मूव फारवर्ड पार्टी भी अच्छी खासी सीटें जीत रही है। फेयु थाई पार्टी का नेतृत्व पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनावात्रा की बेटी पेंतोगार्न शिनावात्रा कर रही है और वह प्रधानमंत्री बनने की रेस में शामिल है। वहीं मूव फारवर्ड पार्टी के नेता लिमजारोनरात भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में है।
सरकार बनाने के लिए इन दोनों पार्टियों में गठबंधन की संभावना साफ नज़र आती है। अभी चुनाव के नतीजे पूरी तरह जारी होने में कुछ हफ्ते का समय लगेगा लेकिन इतना साफ हो चुका है कि थाईलैंड की जनता ने सैन्य शासन से मुक्ति पाने के लिए ही जनादेश दिया। चुनाव परिणामों से उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री प्रयुथ चान-ओचा की विदाई तय है। सेना ने 2006 में तख्ता पलट कर थाकसिन शिनावात्रा को सत्ता से बेदखल कर दिया था लेकिन उनकी रिश्तेदार चिंगलुक शिनावात्र 2011 में प्रधानमंत्री बनी थी लेकिन प्रयुथ के नेतृत्व में तख्ता पलट कर उन्हें सत्ता से हटा दिया गया था। 2019 के चुनाव में फेयु थाई पार्टी ने सबसे अधिक सीटें जीती थी लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी सेना समर्थित पलांग प्रचार्थ पार्टी ने प्रयुथ के साथ गठबंधन कर लिया था। हालांकि इस बार के चुनावों में सेना का समर्थन दो धड़ों में विभाजित है लेकिन इन चुनावों में एक पेंच अभी भी फंसा हुआ है। माना जा रहा है कि मूव फारवर्ड पार्टी की 400 में से 113 और फेयु थाई पार्टी को करीब 112 सीटें मिल सकती हैं। वहीं 100 सीटों को पार्टियों को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर वितरित किया जाएगा।
विपक्षी पार्टियों ने भले ही बंपर सीटों पर जीत हासिल की है लेकिन सत्ता की चाबी अभी भी थाई सेना के पास है। दरअसल थाईलैंड में सैन्य शासन के बाद ऐसी व्यवस्था बनाई गई है कि वहां चुनाव के बाद 250 सदस्यों वाली एक सीनेट का भी समर्थन पाना होता है। यह सीनेट ही प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी का चुनाव करती है। हालांकि इस सीनेट के सदस्यों का चुनाव नहीं होता है और यह सेना द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। इस तरह साफ है कि भले ही विपक्षी पार्टियों को बंपर सीटें मिली हैं लेकिन अभी भी यह तय नहीं है कि वह सरकार बना पाएंगे या नहीं।
जीतने वाले उम्मीदवार के पास कम से कम 376 वोट चाहिए लेकिन किसी भी दल के लिए अपने बल पर यह आंकड़ा छूना सबसे बड़ी चुनौती है। थाईलैंड की जनता मौजूदा प्रधानमंत्री प्रयुथ से काफी नाराज है। उन पर लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, कोरोना महामारी से निपटने में कमियों और लोकतांत्रिक सुधारों को विफल करने का आरोप है। युवा मतदाताओं में वृद्धि और सैन्य शासन से हुए नुक्सान को लेकर आम जागरूकता इस चुनाव के नतीजे तय करने में अहम साबित हुई है। हालांकि प्रयुथ थाईलैंड के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे हैं लेकिन वह महंगाई और अन्य मोर्चों पर पूरी तरह से विफल रहे हैं। देश में नई सरकार को लेकर लोगों की उम्मीदें हैं कि वो करेंसी सहायता, पैंशनरों और बुजुर्गों के लिए न्यूनतम वेतन और भत्ते में वृद्धि के अपने वादों को निभाएगी और अर्थव्यवस्था सुधार के लिए ठोस कदम उठाएगी। पर्यटन क्षेत्र को भी नई सरकार से बड़ी उम्मीद है क्योंकि पर्यटन ही थाईलैंड की अर्थव्यवस्था का आधार है।
फेयु थाई पार्टी ने किसानों की आय बढ़ाने का वादा किया है। ऐसे में किसानों को भी नई सरकार पर काफी भरोसा है लेकिन यह सब तभी संभव है जब सेना निर्वाचित सरकार बनने के मार्ग मेें कोई बाधा न खड़ी करें और सरकार के गठन का मार्ग सहजता से प्रशस्त करे। अभी भी सरकार को लेकर दुविधा की स्थिति बनी हुई है। थाईलैंड का नया राजनीतिक परिदृश्य क्या होगा। इसके लिए कुछ समय इंतजार करना पड़ेगा।