1936 में जब अंग्रेजी शासन के समय भारत ने संसदीय प्रणाली अपनाने का फैसला किया तो ब्रिटिश संसद के उच्च सदन ‘हाऊस आफ लार्डस’ में दो अंग्रेज विद्वान सदस्यों ने राय व्यक्त की कि भारत ने अंधे कुएं में छलांग लगाने का फैसला कर लिया है। कंगाली और मुफलिसी में रहने वाला अनपढ़ों का देश भारत किस प्रकार अपने लोगों को मताधिकार देकर संसदीय प्रणाली के तहत आगे का रास्ता तय कर पायेगा और स्वतन्त्र होने पर किस तरह इस प्रणाली के तहत स्वयं को एकजुट रख पायेगा। इस पर तब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जो जवाब दिया था उसे ध्यान से सुनिये । महात्मा ने कहा, ‘मुझे भारतवासियों की समझ पर पूरा भरोसा है वे अनपढ़ जरूर हो सकते हैं मगर अज्ञानी नहीं हैं।’ स्वतन्त्रता के बाद का भारत का इतिहास साक्षी है कि जहां भी इसके राजनीतिज्ञ दिग्भ्रमित होने लगते हैं तो लोग आगे बढ़ कर स्वयं नेतृत्व संभाल लेते हैं। राजनीति बेशक सत्ता की चाकर हो सकती है मगर इस देश के आम नागरिकों को जो व्यवस्था गांधी बाबा देकर गये हैं उसमें साधारण आदमी ही सत्ता का मालिक होता है। ठीक ऐसा ही उदाहरण मध्यप्रदेश के दमोह विधानसभा क्षेत्र के एक गांव ‘हिनोता कलां’ के लोगों ने कोरोना काल में उदाहरण प्रस्तुत करके सिद्ध किया है कि ‘राजनीति लोगों के लिए नहीं बल्कि लोगों से ही राजनीति होती है’।
दमोह विधानसभा क्षेत्र में जल्दी ही मतदान होने वाला है। यहां के कांग्रेसी विधायक द्वारा सत्तारूढ़ भाजपा में जाने के बाद उपचुनाव हो रहा है। परन्तु राज्य में कोरोना का कहर जबर्दस्त हैं और हजारों लोग रोज कोरोना संक्रमण से ग्रस्त पाये जा रहे हैं। चुनावों को देखते हुए मुख्य प्रतिद्वन्दी दलों भाजपा व कांग्रेस के बीच जनसभाएं व रैलियां आदि करने की होड़ भी लगी रही। इन रैलियों में गांवों से लोगों को जुटाने का जिम्मा स्थानीय दलीय नेताओं को दिया जाता रहा। मगर कोरोना की रफ्तार को बढ़ते देखते हुए इन स्थानीय नेताओं को जनसभाओं में भीड़ जुटाने में भारी दिक्कत होने लगी। राज्य में दमोह को छोड़ कर शेष सभी प्रमुख शहरों व जिलों में रात्रि कर्फ्यू तक लगा दिया गया। चुनावों को देखते हुए दमोह का फैसला चुनाव आयोग पर छोड़ दिया गया। तब हिनोता कलां के करीब साढे़ तीन हजार से अधिक लोगों ने फैसला किया कि वे कोरोना संक्रमण का विस्तार रोकने के लिए अपने गांव में स्वयं ही लाकडाऊन कर देंगे। पूरे गांव ने यह फैसला गांव के ही एक बुजुर्ग की सलाह पर लिया और सभी प्रकार की सामाजिक व वाणिज्यिक गतिविधियों पर स्वतः ही प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा कर दी। वजह यह थी कि गांव से दूसरे स्थानों पर जाने से संक्रमण के गांव में आने का खतरा लगातार बना हुआ था। अतः गांव वालों ने किसी भी दल के राजनेता की जनसभा में न जाने का फैसला करते हुए लाकडाऊन घोषित कर दिया। इससे साबित होता है कि राजनीति जब लोकहित को किनारे पर धकेलती है तो लोग स्वयं उठ कर अपने हितों की रक्षार्थ खड़े हो जाते हैं। वास्तव में मजबूत लोकतन्त्र की ही यह पहचान होती है क्योंकि राजनीति का अंतिम लक्ष्य केवल लोकसेवा ही होता है और जब उसमें से लोकसेवा का भाव क्षीण होने लगता है तो लोगों को स्वयं उठ कर यह आभास समस्त राजनीतिक जगत को कराना पड़ता है।
भारत में पंचायती राज व्यवस्था का मन्तव्य भी यही है कि गांव के स्तर पर लोकतन्त्र मजबूत बने और गांव स्वावलम्बी बनें। यह स्वावलम्बन केवल आर्थिक या भौतिक नहीं होता बल्कि वैचारिक स्तर पर भी होता है। यदि ऐसा न होता तो हिनोता कलां के लोग बिना किसी प्रशासनिक निर्देश के लाकडाऊन लगाने का फैसला क्यों करते ? मगर भारत के लिए यह अजूबा नहीं है। इसकी संस्कृति लोक गणराज्यों की संस्कृति रही है जिसमें ग्राम सभा के स्तर से ही लोकल्याण के विचार को पुष्ट किया जाता था। हिनोता कलां के लोगों ने 21वीं सदी के दौर में केवल यही सिद्ध किया है कि गणराज्य का आधारभूत गांव ही होते हैं और इसी स्तर से लोकतन्त्र में लोककल्याण की शुरूआत होती है। बेशक आज के दौर में हम शहरीकरण से चमत्कृत हो सकते हैं परन्तु यह नहीं भूला जाना चाहिए कि कोई भी विकास या प्रगति गांवों की कीमत पर नहीं की जा सकती। नागरिकों का मानसिक उत्थान और वैज्ञानिक सोच भी विकास का ही पैमाना होते हैं। राजनीति इसी विकास के लिए लोगों को जागरूक बनाती है। यह जागरूकता ही सकल राष्ट्रीय विकास के लिए जरूरी मानी जाती है। वर्तमान कोरोना संक्रमण के सन्दर्भ में मध्य प्रदेश का यह गांव पूरे देश को यह सन्देश भी दे रहा है कि कुछ की भांति वे कोरोना के बारे में किसी भ्रामक प्रचार के फेर में न पड़ें और वैज्ञानिक तरीके अपनाते हुए इस महामारी का मुकाबला करें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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