विश्व बंधुत्व और अहिंसा परमो धर्मः की शिक्षा देने वाले भारत में लगातार हो रही घटनाएं परेशान कर देने वाली हैं। इन घटनाओं में कोई गोमांस खाने का तथाकथित आरोपी था, कोई दुष्कर्म का आरोपी था, कोई गायों को वधशाला के लिए ले जाने का तथाकथित दोषी था। हाल ही में बच्चा चोरी की अफवाहों के चलते कुछ लोगों को पीट-पीटकर मार डाला गया। संविधान में जीवन के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 कहता है ‘‘भीड़ द्वारा हमला और हत्या को व्यक्तिगत स्वतंत्रता आैर जीवन के मौलिक अधिकार पर वीभत्स हमले के रूप में ही देखा जाएगा।’’ यदि किसी व्यक्ति से कोई अपराध हुआ है तो उसे सजा देने का हक कानून को है न कि जनता उसको तय करेगी। ऐसी घटनाएं देश की एकता और अखंडता को नुक्सान पहुंचाती हैं तथा विघटनकारी ताकतों को देश में अशांति फैलाने के लिए आधार उपलब्ध कराती हैं।
भीड़ द्वारा हत्याओं के मामले में दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भीड़तंत्र को कानून के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती। इसे फौलादी हाथों से खत्म कर दिया जाना चाहिए। राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं को अनसुना नहीं कर सकतीं। गाेरक्षा के नाम पर कोई भी शख्स कानून को अपने हाथों में नहीं ले सकता। संसद को इसके लिए कानून बनाने की जरूरत है। पीठ ने ऐसी हिंसा रोकने के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं। दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि सरकार कानून बनाकर आरोपियों को दंडित करने का प्रावधान करे। कानून व्यवस्था, समाज की बहुलवादी सामाजिक संरचना अाैर कानून के शासन को बनाए रखना राज्य का कर्त्तव्य है।
जब सुप्रीम कोर्ट यह सब कह रहा था उधर 80 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश से पाकुड़ में मारपीट की जा रही थी। पश्चिम बंगाल के हावड़ा के भगवतीपुर में चोरी के संदेह में भीड़ ने एक व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी। स्वामी अग्निवेश 80 के दशक में हरियाणा सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। उन्होंने बंधुआ मजदूरी के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाया था। आखिर ऐसे व्यक्तित्व पर जूते-चप्पल और पत्थर बरसाए जाएं, यह अपने आप में शर्मसार कर देने वाला है। क्या यह वैचारिक असहिष्णुता का परिणाम है? अगर देश में अलग-अलग विचार सुनने को कोई तैयार नहीं होगा तो यह देश और समाज के लिए घातक ही होगा। स्वामी अग्निवेश की किसी बात पर किसी को आपत्ति हो सकती है तो क्या इसका मतलब यह तो नहीं कि उन्हें घेरकर पीटा जाए। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 18 माह में 66 बार भीड़ हमलावर हुई और 33 लोगों की जान गई। क्या दोष हमारी व्यवस्था में है, क्या हमारी व्यवस्था कहीं भीड़ को हिंसा के लिए तो नहीं उकसा रही। यदि ऐसा है तो फिर व्यवस्था को ठीक करना होगा।
हैरानी हाेती है जब इस देश में पहलू खान की हत्या के आरोपियों की तुलना भगत सिंह से की जाती है। दुःख होता है कि जब केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा आरोपियों को माला पहनाकर फोटो खिंचवाते हैं। आज के दौर में मार डालने वाली भीड़ हीरो बनकर उभरी है। भीड़ खुद को सही मानती है और हिंसा को व्यावहारिक एवं जरूरी बताती है। अखलाक की हत्या से लेकर कठुआ व उन्नाव मामले में अभियुक्तों का बचाव करना दिखाता है कि भीड़ खुद ही न्याय करना और नैतिकता के दायरे तय करना चाहती है। भीड़ सभ्य समाज की सोचने-समझने की क्षमता और बातचीत से मसले सुलझाने का मार्ग खत्म कर देती है और दूसरों को अपनी बात कहने का मौका ही नहीं देती। ज्यों-ज्यों तकनीक का इस्तेमाल बढ़ता गया, सूचनाएं और अफवाहें तेजी से फैलने लगीं और एक-दूसरे से सुनकर अफवाहें ज्यादा खतरनाक रूप लेती रहीं। जान लेने वाली भीड़ सोशल मीडिया के नियमों पर चलने लगी और हिंसा को आगे बढ़ा रही है। भीड़ जुटाने वाली इस डिजिटल हिंसा को एक अलग तरह की समझ की जरूरत है।
अब सवाल यह है कि मॉब लिंचिंग पर रोक कैसे लगाई जाए? देश में कट्टरपंथी ताकतें अपने-अपने तरीके से साम्प्रदायिकता को फैलाने में लगी हुई हैं। समाज का एक वर्ग यह मानता है कि कुछ रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताओं की किसी भी हालत में सुरक्षा की जानी चाहिए, चाहे वो कानून के खिलाफ ही क्यों न हो। ऐसी घटनाओं पर सख्ती से कानून लागू करके और गुनाहगारों को सजा देकर लगाम कसी जा सकती है। ऐसे तत्वों आैर संगठनों पर कड़ी नजर रखनी होगी। क्या कानून बनाकर ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है? संसद में इस विषय पर चर्चा होने की उम्मीद है। लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में मॉब लिंचिंग पर स्वस्थ बहस होगी, बहस से तर्कसंगत निष्कर्ष निकलेंगे लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि लोगों की मानसिकता को कैसे बदला जाए?