मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार को अल्पमत में लाने के लिए जो कर्मकांड हुआ है उससे केवल 15 महीने पहले ही गठित विधानसभा की साख किसी बाजार की मंडी की तरह हो गई है जिसमें जनता द्वारा चुने गये विधायकों की बोलियां सियासत के हुनरमन्द लगा रहे हैं। मध्य प्रदेश के महाभारत में ‘दल-बदल’ कानून को जिस तरह ‘लंगड़ा-लूला’ बना कर हुकूमत के रंग में बदलने की साजिश रची गई, उससे यही साबित हुआ कि जनता द्वारा चुनाव में दिये गये वोटों की आखिरी कीमत उसके द्वारा चुने गये नुमाइन्दे जब चाहें वसूल सकते हैं। सवाल पैदा होता है कि क्या हम लोकतन्त्र को किसी कोठे पर चलने वाले मुजरे की दिलरुबाई में बदल देना चाहते हैं? यह कैसी ‘दिल्लगी’ हो रही है कि जनता द्वारा दिये गये बहुमत को तोड़ने के लिए कुछ विधायकों का तबादला किसी ‘होटल’ में करके पूरी विधानसभा को ही ‘रक्स’ करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
गुजरे जमाने के समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि ‘‘जिस दिन भारत में विधायक औऱ सांसद अपने इमान का सौदा लोगों के यकीन को तोड़ कर करने लगेंगे उस दिन पूरी लोकतान्त्रिक प्रणाली का ‘इकबाल पामाल’ हो जायेगा और इस कसरत से जो भी सरकार सत्ता में आयेगी उसकी हैसियत किसी ‘कुड़की’ करने वाले ‘अमीन’ से भी बदतर होगी।’’ डा. लोहिया यह भी कहा करते थे कि लोकतन्त्र केवल संविधान से नहीं बल्कि ‘लोकलज्जा’ से भी चलता है। लोकलज्जा राजनीति में नैतिकता को बुलन्द रखती है मगर हम उस दौर में पहुंच चुके हैं जहां ‘पूरे कुएं में ही भांग डाल कर’ अमृत-पान का रस महोत्सव आयोजित किया जा रहा है। सवाल कांग्रेस नेता कमलनाथ या भाजपा नेता शिवराज सिंह चौहान का नहीं है बल्कि सवाल लोकतन्त्र की शान का है जिसे आम जनता ताकत देती है और अपनी मनपसन्द सरकार बनाती है। जो कवायद इस लोकमत को तोड़ कर अपना ‘मतलोक’ गढ़ती है वह मतान्धता का शिकार हो जाती है और उसके फैसले लोकहित में न होकर अपना वजूद बरकरार रखने के नजरिये से होते हैं जबकि लोकतन्त्र जनता के वजूद का अलम्बरदार होता है।
प्रश्न यह नहीं है कि ज्योतिरादित्य सिन्धिया किस वजह से कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गये बल्कि प्रश्न यह है कि कांग्रेस के 22 विधायकों को विधानसभा सत्र के चलते भोपाल से बेंगलुरू में किस वजह से रखा गया? जिन लोगों को विधायक बने हुए केवल 15 महीने ही हुए हैं उनमें ऐसा कौन सा ‘क्रान्ति भाव’ पैदा हुआ कि वे मध्यप्रदेश की जनता से मुंह मोड़ कर बेंगलुरू जा बैठे? अफसोस इस प्रश्न का कि उत्तर देश का सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं दे सका और उसने शक्ति परीक्षण का निर्देश उस समय दे डाला जबकि विधानसभा का सत्र इसके अध्यक्ष श्री एन.पी. प्रजापति के संरक्षण में चल रहा था।
हमारे संविधान में विधायिका व न्यायपालिका दोनों स्वतन्त्र सत्वािधकारी संस्थान हैं। एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप करने की गुंजाइश इसमें हमारे संविधान निर्माताओं ने नहीं रहने दी थी। बेशक संसद द्वारा बनाये गये कानून को न्यायपालिका अवैध घोषित कर सकती है परन्तु संविधान संशोधन करना भी संसद का अधिकार है। उसका यह अधिकार केवल एक मामले में निरापद नहीं है कि उसके जरिये कहीं संविधान के मूलभूत ढांचे को ही न बदल दिया जाये। मध्य प्रदेश में जो पेचीदा हालात बने थे उनमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यही था कि विधायिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्रों की समीक्षा हो। यह सवाल पूरी तरह संवैधानिक था, इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था।
अफसोस यह प्रश्न खुला का खुला ही रह गया। अब सूरतेहाल यह है कि 230 सदस्यीय विधानसभा सिकुड़ कर 206 सदस्यों की रह गई है क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष ने इन सभी 22 विधायकों के इस्तीफे स्वीकार कर लिये हैं जो कांग्रेस का पल्ला छोड़ कर बेंगलुरू तशरीफ ले गये थे। दो स्थान विधायकों की मृत्यु की वजह से रिक्त पड़े हुए हैं। इन सभी स्थानों पर आगामी कुछ महीनों में उपचुनाव होंगे और फिर से इन क्षेत्रों की जनता अपने प्रतिनिधि चुनेगी। सवाल खड़ा होता है कि पुराने चुने गये प्रतिनिधियों ने जब इस्तीफा देने के लिए अपने मतदाताओं से कोई राय नहीं ली तो उन्हें कसूरवार क्यों न ठहराया जाये? मगर जो 206 विधायक बचे हुए हैं उनकी भी क्या गारंटी है कि वे मौका-बेमौका इस्तीफा नहीं देंगे क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें अपने मतदाताओं से तो इजाजत नहीं लेनी है। यह विषय राज्यपाल महामहिम लालजी टंडन के विचार क्षेत्र में आता है कि वे देखें कि उनके राज्य में केवल संविधान का शासन ही हो।
विधायकों की खुदगर्जी और ऐश-परस्ती की ललक को वह कैसे खत्म कर सकते हैं? इसका केवल एक ही तरीका हो सकता है कि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए मौजूदा विधानसभा को भंग करने की सिफारिश इस ताइद के साथ करें कि सूबे में पुख्ता सरकार बनने के बुनियादी ढांचे पर ही इस्तीफा देने की रस्म ने कहर बरपा दिया है मगर श्रीमान टंडन ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि संविधानतः ऐसा करने के लिए वह मजबूर नहीं हैं। यहीं लोकलज्जा आती है जो राजनीति में ‘नैतिकता’ को प्रतिष्ठापित करती है। यदि आज डा. लोहिया जीवित होते तो वह विधानसभा भंग करने की ही मांग करते और जनसंघ के नेता पं. दीन दयाल उपाध्याय उनका समर्थन करते हुए दिखाई पड़ते क्योंकि उपाध्याय जी राजनीति में नैतिकता के जबर्दस्त हिमायती थे। लोकतन्त्र में सरकारें अपने कार्यों से पहचानी जाती हैं। इसके साथ ही राजनीतिक दल हमेशा अपनी छवि उज्ज्वल रखना चाहते हैं। इसकी वजह यह होती है कि चुनावों में मतदाता प्रत्याशी देख कर तो वोट देते हैं मगर कमोबेश वे पार्टी को ही वोट देते हैं। यही राजनीतिक लोकतन्त्र होता है। हर पांच साल बाद जब मतदाता निर्णय करते हैं तो वे किसी व्यक्ति पर नहीं बल्कि पार्टी की सरकार की उपलब्धि पर फैसला करते हैं।
बेशक उस पार्टी के नेतृत्व की क्षमता भी मायने रखती है परन्तु प्रत्याशी तो पार्टी के ही उसी प्रकार जीतते हैं जिस प्रकार विगत लोकसभा चुनावों में भाजपा के जीते थे। अतः पार्टी की छवि को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। यह राजनीतिक सापेक्षता का नियम होता है जो विज्ञान के नियम के अनुसार काम करता है। मध्य प्रदेश के इस महाभारत में कमलनाथ सत्ता से बेदखल होने के बावजूद यह लड़ाई अपने पक्ष में करने में कामयाब हो गये हैं और इस प्रदेश की आम जनता की सहानुभूति उनके साथ हो गई है। असल में राजनीतिक पेंच और कुछ होता भी नहीं है केवल जनता की सहानुभूति बटाेरने की लड़ाई होती है मगर यह भी निश्चित है कि अब कमल ही उनके हाथ से छिन चुका है।