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कासगंज में एेसा क्या हुआ?

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स्वतन्त्र भारत में गणतन्त्र दिवस के अवसर पर यदि किसी स्थान पर साम्प्रदायिक दंगा भड़कता है तो वह हमारे माथे पर ऐसा कलंक है जिससे हमारे विकास के सारे दावों पर कालिमा पुत जाती है। गणतन्त्र दिवस जैसा दिन किसी भी सूरत में दलगत राजनीति के साये में नहीं लाया जा सकता है क्योंकि यह दिन उस संविधान का पर्व मनाने का होता है जिसने भारत के प्रत्येक नागरिक को धर्म, जाति, लिंग व क्षेत्र से ऊपर उठकर एक समान अधिकार दिए हैं। यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति के आत्मसम्मान की सुरक्षा की गारंटी देता है। भारत राष्ट्र किसी विशेष समुदाय या सम्प्रदाय अथवा वैचारिक सोच से बंधे वर्ग की राष्ट्रभक्ति का मोहताज नहीं है अतः देश प्रेम को किसी विशेष सम्प्रदाय की बपौती मानकर नहीं परखा जा सकता। भारत का हर मुसलमान भी उतना ही देशभक्त है जितना कि कोई हिन्दू या सिख अथवा ईसाई, अतः किसी समुदाय विशेष को किन्हीं चुने हुए मानकों पर देश विरोधी साबित करने की नीयत भारत विरोधी ही कही जाएगी मगर दुर्भाग्य यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति पिछले लगभग तीस वर्षों से पूरी तरह साम्प्रदायिक ध्रुवों पर ही घूम रही है जिसके बीच जातिगत ध्रुव ने अपनी जगह बहुत होशियारी के साथ तय की है। एक विशेष सम्प्रदाय के लोगों के बीच कट्टरता की भावना को बढ़ाकर दूसरे सम्प्रदाय में एेसी ही भावनाएं भड़काने की राजनीति ने समूचे उत्तर प्रदेश को पचास साल पीछे फैंक दिया है।

यह राजनीति वोट बटोरने का सबसे आसान रास्ता उन्हीं मतदाताओं की जान की कीमत पर होता है जिनके पास एक वोट की ताकत के बूते पर सरकार बनाने की क्षमता होती है। उन्हें हिन्दू–मुसलमान में बांटकर लोकतन्त्र में बहुसंख्यक समुदाय के वोटों को गोलबन्द करके चुनी हुई सरकार का गठन करना बहुत आसान इसलिए हो जाता है क्योंकि ऐसी सरकार उन मूलभूत नागरिक मुद्दों को ताक पर रख देती है जिनका सरोकार धर्म व सम्प्रदाय से ऊपर प्रत्येक नागरिक के विकास से होता है। वास्तव में इसे राजनीति कहना खुद को धोखे में रखने जैसा ही है क्योंकि इस राजनीति के भीतर विध्वंस की भूमिका केन्द्र में रहती है जो कि पहले किए गए सृजन (विकास) को भी खा जाती है। अतः किसी भी राज्य या शहर में हुए किसी भी साम्प्रदायिक दंगे का निष्कर्ष केवल यही निकल सकता है कि वहां विध्वंसकारी ताकतें सृजनमूलक शक्तियों को दबोच लेना चाहती हैं। उत्तर प्रदेश के कासगंज कस्बे में 26 जनवरी को जो साम्प्रदायिक दंगा भड़का उसकी जड़ में एेसी ही शक्तियां हैं जो भारत के विकास को उलट देना चाहती हैं और पूरी दुनिया को बता देना चाहती हैं कि यह देश 21वीं सदी में पहुंच कर भी अभी तक उन ताकतों के साये से नहीं छूटा है जिन्होंने पिछली सदी में इसका बंटवारा करा डाला था। कासगंज में तिरंगा रैली अखिल भारतीय ​विद्यार्थी परिषद और अन्य संगठनों के युवा यदि निकाल रहे थे तो इसमें कासगंज के सभी समुदायों की शिरकत होनी चाहिए थी।

राष्ट्रवाद और देशभक्ति में कभी भी प्रतियोगिता नहीं हो सकती और इसके प्रदर्शन से किसी दूसरे पूरे समुदाय को देश विरोधी साबित नहीं किया जा सकता। इसमें धर्म या मजहब को बीच में लाकर हम उस भारत के आकार को ही छोटा कर देते हैं जिसने सभी धर्मों के लोगों को फलने-फूलने का अवसर दिया है मगर अक्सर एेसे अवसरों का लाभ देश विरोधी ताकतें उठाने से नहीं चूकतीं और प्रतियोगिता के माहौल में वे उत्तेजक जवाबी कार्रवाई करने के लिए उकसाती हैं जिनके चंगुल में कुछ लोग फंस जाते हैं और पूरे वातावरण को विषाक्त बना देते हैं। कासगंज वह कस्बा है जहां से कुछ दूरी पर ही गंगाजी बहती हैं और हर वर्ष लगने वाले गंगा स्नान के मेले के प्रबन्धन में यहां के मुसलमान नागरिक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मुस्लिम नागरिकों की पूर्ण सहभागिता पर ही टिका हुआ है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दुओं के धार्मिक पर्वों से लेकर तीज-त्यौहारों तक में मुस्लिम हुनरमन्दों और कारीगरों की भूमिका प्रमुख रहती है। यहां तक कि हरियाणा, राजस्थान व पंजाब के मुस्लिम जोगी हिन्दुओं की विरासत को संभाले हुए हैं मगर जब हम उनकी राष्ट्रभक्ति को सन्देह के घेरे में रखने की भूल कर जाते हैं तो आजमगढ़ में जन्मे ब्रिगेडियर उस्मान जैसे शहीद की आत्मा जरूर पूछती होगी कि जिस पाकिस्तान की फौज की सिपहसालारी को उसने ठोकर मारकर अपने वतन हिन्दोस्तान की मिट्टी में मिल जाना लाख दर्जे बेहतर माना था, उस मुल्क के लोगों को क्या जुनून सवार हुआ है कि वे आपस में ही लड़ रहे हैं ? चाहे उलेमा हो या पंडित, सभी उसी जमीन से उगे हुए गेहूं की रोटी खाते हैं जिसे वे नहीं जानते कि उसे किसी हिन्दू ने उगाया था या मुसलमान ने।

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