त्रिपुरा की प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में क्यों? - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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त्रिपुरा की प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में क्यों?

उत्तर-पूर्व के बांग्लादेश से छूते छोटे से राज्य त्रिपुरा में पिछले दिनों जो कुछ हुआ वह न तो इस राज्य की संस्कृति से कहीं मेल खाता था और न ही समूचे भारत की रवायतों के अनुकूल था।

उत्तर-पूर्व के बांग्लादेश से छूते छोटे से राज्य त्रिपुरा में पिछले दिनों जो कुछ हुआ वह न तो इस राज्य की संस्कृति से कहीं मेल खाता था और न ही समूचे भारत की रवायतों के अनुकूल था। आजादी मिलने के कुछ समय बाद भारतीय संघ में शामिल होने से पहले त्रिपुरा रियासत की संस्कृति हालांकि आदिवासी मूलक थी मगर यहां के ‘बर्म्मन राजवंश’ के शासकों ने अपनी प्रजा के बीच कभी हिन्दू-मुसलमान का भेदभाव नहीं किया और यहां तक हुआ कि राजा की तरफ से बहुत कम संख्या में रहने वाले मुस्लिम नागरिकों के लिए मस्जिद तक का निर्माण कराया गया। वह राजशाही का दौर था जिसमें राजा या नवाब मन्दिर- मस्जिदों का निर्माण कराया करते थे। मगर भारत में लोकतन्त्र की बयार बहने के बाद  संविधान ने यह कार्य समाज पर छोड़ दिया और राजनीति में धर्म का प्रवेश निषेध कर दिया परन्तु यह भी हकीकत है कि चुनावों के मौकों पर राजनीतिक दल धार्मिक दृष्टि से मतदाताओं को गोलबन्द करने के लिए मजहबी प्रतीकों का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आते, जिस प्रकार उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भारत के दो टुकड़े कराने वाले मुहम्मद अली जिन्ना को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू औऱ सरदार पटेल के साथ स्वतन्त्रता सेनानियों की फेहरिस्त में गिनाया, वह एेसा ही प्रयास था परन्तु त्रिपुरा में तो कुछ सप्ताह पहले गजब हो गया और वहां कुछ उग्रवादी संगठनों ने बांग्लादेश में हुए साम्प्रदायिक दंगों की प्रतिक्रिया में एक विशेष समुदाय के लोगों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन किया और उनके पूजा स्थलों तक को फूंकने की कोशिश की व मुस्लिम समुदाय के लोगों के वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों व उनके घरों पर हमला तक किया। एेसा करते हुए ये लोग भूल गये कि बांग्लादेश एक स्वतन्त्र व सार्वभौम राष्ट्र है और इस देश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना वाजेद ने अपने मुल्क में हुए साम्प्रदायिक दंगों में हिन्दू नागरिकों पर हुए अत्याचार का बहुत सख्ती से संज्ञान लिया और संदिग्ध दोषियों को जेलों में ठूंस कर उनके ऊपर मुकदमे दायर कर दिये और आम जनता को आश्वस्त किया कि हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा करने वालों को किसी सूरत में बख्शा नहीं जायेगा और कानून से उन्हें यथायोग्य सजा दिलवाई जायेगी। मगर आश्चर्य की बात यह है कि त्रिपुरा की घटनाओं की प्रतिक्रिया महाराष्ट्र के तीन शहरों में साम्प्रदायिक प्रदर्शनों के रूप में हुई। इसे निश्चित रूप से पागलपन कहा जायेगा कि महाराष्ट्र के अमरावती, नांदेड व मालेगांव के लोगों को अपने शहरों में शान्ति व्यवस्था को बिगाड़ने में प्रयोग किया जाये। जिन लोगों या संस्थाओं ने भी एेसे प्रदर्शनों का आयोजन किया है उसेऩ्हें किसी भी तौर पर अमन पसन्द नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे ‘साम्प्रदायिकता का मुकाबला साम्प्रदायिकता’ से करना चाहते हैं। यह सोच ही नफरत को पैदा करने वाली है जिसका मुकाबला  सिर्फ प्रेम व भाईचारे से ही किया जा सकता है। नहीं भूला जाना चाहिए कि यह देश उन महात्मा गांधी का है जिन्होंने 1947 में मुल्क के बटंवारे के समय हिन्दू-मुस्लिम दंगों में जलते बंगाल में अकेले जाकर ही इस नफरत की आग को अपने आमरण अनशन और सत्याग्रह से शान्त कर दिया था। 
हम क्यों भूल जाते हैं कि हर देश के नागरिकों की राष्ट्रीयता अलग होती है और वे जिस देश में रहते हैं उसकी व्यवस्था वहां की सरकार की जिम्मेदारी होती है। उनका मजहब और भारत में रहने वाले किसी नागरिक के मजहब से मिलता है तो इसका मतलब राष्ट्रीयता का मिलना नहीं होता लेकिन महाराष्ट्र में तो धर्म के आधार पर लड़ाने वालों को जैसे त्रिपुरा के दंगों से एक मौका मिल गया और उन्होंने वहां कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में लेने तक की गुस्ताखी कर डाली। हम क्यों भूल जाते हैं कि भारत में रहने वाले लोग हिन्दू-मुसलमान बाद में हैं, सबसे पहले हिन्दोस्तानी हैं और इस मुल्क में अमन-चैन कायम रखना सभी का फर्ज है। 
यदि हम किसी घटना की प्रतिक्रिया का हवाला देकर मजहब को राजनीति का शिकार बनायेंगे तो यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा किसी को पता नहीं। इसलिए बहुत जरूरी है कि त्रिपुरा की घटनाओं की जांच न्यायिक दायरे में होनी चाहिए जिससे इस राज्य में सुख-शान्ति बनी रहे और देश के किसी भी अन्य इलाके में इसकी प्रतिक्रिया न हो, जिसकी पुख्ता व्यवस्था राज्य सरकारों को करनी चाहिए। क्योंकि गांधी की यह उक्ति हर युग और समय में सही साबित होगी कि यदि ‘आंख के बदले आंख फोड़ने का नियम बन जाये तो एक दिन पूरी दुनिया ही अंधी हो जायेगी’। अतः महाराष्ट्र सरकार का यह पहला कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने राज्य में किसी भी प्रकार का साम्प्रदायिक तनाव पैदा न होने दे और एेसा प्रयास करने वालों के साथ सख्ती से निपटे।  त्रिपुरा की घटनाओं की आलोचना या मजम्मत करने का लोकतान्त्रिक अधिकार सामाजिक व राजनीतिक संगठनों के पास है मगर यह शान्तिपूर्ण और पूरी तरह अहिंसक तरीके से ही होना चाहिए और इसमें किसी धर्म के खिलाफ नहीं बल्कि सभी धर्मों को जोड़ने की भावना होनी चाहिए। त्रिपुरा की हालत तो यह है कि सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा है कि राज्य सरकार स्थानीय चुनाव निकायों के लिए संविधान परक एेसा माहौल बनाये जिससे प्रत्येक राजनीतिक दल स्वतन्त्र व निर्भय होकर इनमें भाग ले सके। लोकतन्त्र में इस देश की सबसे बड़ी अदालत के इस निर्देश के ही बहुत गंभीर मायने होते हैं।

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