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प्रेम के बगैर नहीं उभरतीं रंगों की छटाएं

मैं जब भी अपने दफ्तर में घुसता हूं तो मशहूर पेंटर सैयद हैदर रजा द्वारा बनाया गया एक रेखाचित्र बार-बार मेरा ध्यान खींचता है। उस पर लिखा वाक्य अनमोल है, ‘बिन्दु’ अतल शून्य की अनंत संभावनाएं, यह रेखाचित्र रजा साहब की याद तो दिलाता ही है, मेरे भीतर का कलाकार मचल उठता है। कैनवास पर कूची से खेलना और कविता के माध्यम से अभिव्यक्ति मुझे सुकून देता है। आप सोच रहे होंगे कि अचानक मैं पेंटिंग और कविता की बात क्यों करने लगा?

दरअसल आज विश्व कला दिवस है और कला के बगैर जिंदगी की संपूर्णता के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। विभिन्न स्वरूपों में कला हर व्यक्ति में होती है, कोई अभिव्यक्त कर पाता है और कोई नहीं। गांव में गोबर से मांडना बनाना हो या फिर दिवाली पर रंगोली रचना, ये सब कला का ही स्वरूप है। मैं खुद जब पेंटिंग करने बैठता हूं या कोरे कागज पर कविता लिखने लगता हूं तो रचनाशीलता किस तरह मुखर हो उठती है, मुझे इसका भान भी नहीं रहता। मैंने बहुत से कलाकारों को करीब से जाना है। कविवर सुरेश भट्ट की रचनाओं को पढ़िए तो अचंभित रह जाते हैं। कला हर बंधन से परे है, इसीलिए तो पेंटर मकबूल फिदा हुसैन पांडुरंग की आराधना के रंग में रंगे थे, अदृश्य को दृश्यमान बना देने की अनंत संभावनाएं कला में होती हैं।

वैसे ही जैसे शून्य के बायीं ओर अंक का आधार स्थापित होते ही उसका मूल्य बढ़ता चला जाता है। इसीलिए तो रजा साहब ने रेखाचित्र बनाते हुए लिखा ‘बिन्दु’ अतल शून्य की अनंत संभावनाएं, राजा रवि वर्मा ने कल्पना के आधार पर देवी-देवताओं के चित्र बनाए लेकिन आज वो चित्र सर्वमान्य हो चुके हैं।

कला की असीम संभावनाओं को मैंने कोविड के दौर में महसूस भी किया, कोविड की भयावहता ने जब सभी को घर में कैद कर दिया तो मैं कोई अपवाद नहीं था। मैं जानता था कि अकेलापन व्यक्ति को खोखला कर सकता है इसलिए कोविड के उस पूरे दौर में मैंने पेंटिंग और काव्य रचना को अपना साथी बनाया, सामान्य दिनों में भी मैं कितना भी व्यस्त रहूं, पेंटिंग से किसी न किसी रूप में जुड़ा रहता हूं। कोविड शुरू होने से तीन महीने पहले मैंने देश के मशहूर पेंटिंग कलाकारों को ताड़ोबा के मनोरम अभयारण्य में एक सप्ताह के लिए एकत्रित किया था। हम सभी ने वहां प्रकृति के हर रंग को अपनी कूची से अभिव्यक्त किया। इन सबकी याद मैं आपको इसलिए दिला रहा हूं ताकि बता सकूं कि कला का जीवन में कितना महत्व है और हां कला का स्वरूप चाहे कुछ भी हो लेकिन उसका सीधा संबंध प्रेम से है। प्रेम के भाव न हों तो रंगों की छटाएं अभिव्यक्त हो ही नहीं सकती। कलाकार के लिए मन की शुद्धता, निर्मलता, दूरदृष्टि, ईमानदारी और क्षमा का भाव होना अत्यंत आवश्यक तत्व है। जिस तरह से हम मंदिर जाने के पहले पूजा की तैयारी करते हैं। वैसी ही जरूरत कला की अभिव्यक्ति में भी होती है। कला पूजन है, मेडिटेशन है। कोई कलाकार अपनी पेंटिंग आपको दिखा रहा हो तो उसकी आंखों में देखिएगा, पूजा जैसा भाव दिखाई देगा।

यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि कला की व्यापकता शायद उतनी ही है जितनी इस संपूर्ण ब्रह्मांड की। विज्ञान की तमाम उपलब्धियों के बावजूद हम अपनी सृष्टि को रेत के कण जितना भी नहीं जान पाए हैं। कला के क्षेत्र में भी यही बात कही जा सकती है, यदि हम केवल पेंटिंग की ही बात करें तो दुनिया में इतने सारे कलाकार हैं लेकिन विषय एक होने पर भी किसी की भी पेंटिंग किसी से नहीं मिलती। हर किसी के पास अपना नजारा और अपना नजरिया है। ऐसे भी उदाहरण मौजूद हैं कि कलाकार की किसी पेंटिंग का दृश्य कई सौ वर्षों बाद साकार हुआ है।

कला दिवस जिन लिओनार्दो दा विंची के जन्मदिन के अवसर पर मनाया जाता है, वे ऐसे ही एक महान कलाकार थे। उन्हें हम सब मोनालिसा की पेंटिंग के लिए जानते हैं जिसकी अलौकिक मुस्कान की कोई आज भी नकल नहीं कर पाया है। पेरिस के लुविरे संग्रहालय में मैंने 500 साल से ज्यादा पुरानी इस पेंटिंग को करीब से देखा है। ये पेंटिंग एक खास तरह के शीशे में रखी गई है जो न चमकती है और ऐसी है कि कभी टूटे नहीं। जब मैं मोनालिसा को देख रहा था तब मुझे लिओनार्दो दा विंची के अन्य काम भी याद आ रहे थे, यह अत्यंत कम लोगों को पता है कि 1903 में पहला प्रायोगिक हवाई जहाज उड़ाने वाले विल्बर और ऑरविल राइट बंधुओं से करीब 400 साल पहले लिओनार्दो दा विंची ने एयरक्राफ्ट का रेखाचित्र बना दिया था। उस समय लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या ऐसा संभव है कि इस तरह की कोई मशीन हवा में उड़ सकती है? लेकिन कला के माध्यम से कैनवास पर उकेरा गया वह सपना पूरा हुआ। एक और उदाहरण मैं देना चाहूंगा, लिओनार्दो दा विंची ने 1511 में गर्भ में बच्चे की स्थिति को लेकर एक पेंटिंग बनाई।

विज्ञान ने करीब 440 साल बाद गर्भ में जब भ्रूण की स्थिति का पता लगाया तो सब आश्चर्यचकित रह गए कि विंची ने इतने पहले हूबहू पेंटिंग कैसे बना दी? विंची ने सन् 1500 में ऑटोमन साम्राज्य के लिए एक पुल डिजाइन किया जिसे उस वक्त असंभव कह कर नकार दिया गया लेकिन अब विज्ञान वैसे ही पुल बना रहा है, ये है कला की व्यापकता। आधुनिक दौर में मेरी चिंता यह है कि बच्चों को कला के प्रति जितना हमें प्रोत्साहित करना चाहिए उतना कर नहीं पा रहे हैं, कम्प्यूटर के अपने लाभ हैं लेकिन नैसर्गिक कला का वह विकल्प नहीं हो सकता, खासतौर पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की आहट ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हमारी अगली पीढ़ियां कला को क्या समुचित रूप से जिंदगी का हिस्सा बना पाएंगी? यह चिंता बहुत गहरी है। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हमारे बच्चे कला से कैसे जुड़े रहें, कला के बीज बचपन में ही रोपने की जरूरत होती है, उम्मीद है आप ऐसा जरूर कर रहे होंगे।

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