कोरोना से निपटने के लिए लागू लाॅकडाऊन से तहत-नहस अर्थ व्यवस्था को सुधारने के लिए केन्द्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपए का जो मदद पैकेज घोषित किया है उसका खुलासा कई तरह की जिज्ञासाएं पैदा कर रहा है। खास तौर पर कृषि क्षेत्र के लिए जो घोषणाएं आज वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमन ने की है उनसे देश में नई बहस छिड़ सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की मातृ संस्था जनसंघ की घोषित नीति थी कि ‘खेती को उद्योग’ का दर्जा मिलना चाहिए। वित्त मन्त्री ने आज इसी तरफ निर्णायक कदम उठाने का ऐलान यह कह कर किया कि भारत में किसानों को ‘अनुबन्धित खेती’ करने के लिए प्रेरित किया जायेगा। इसके साथ ही कृषि मंडी समिति अधिनियम को खत्म कर किसान को अपनी उपज देश भर में कहीं भी और किसी को भी बेचने का अधिकार दिया जायेगा तथा उपज के भंडारण की सीमा को भी समाप्त कर दिया जायेगा। फसल का बीज बोने से ही पहले किसान के साथ अपेक्षित गुणवत्ता की उपज लेने हेतु ही मूल्य की सौदेबाजी की जा सकती है और उसका भंडारण भी किया जा सकता है तथा माल को किसी भी राज्य में बेरोकटोक बेचा जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि फसल आने से पहले खेतों में खड़े अनाज का सौदा किया जा सकता है और व्यापारी किसान को अपनी मन पसन्द का बीज बोने के लिए बाध्य कर सकता है। इसका क्या परिणाम होगा? इस बारे में अधिक माथा-पच्ची की जरूरत नहीं है। लाॅकडाऊन से निपटने के लिए यह नीतिगत फैसला मदद पैकेज के घेरे में लाकर वित्त मन्त्री ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह कृषि क्षेत्र के ढांचे में आधारभूत परिवर्तन लाना चाहती हैं। एक बार भारत के प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरू ने भी पचास के दशक के शुरू में सहकारी खेती का प्रस्ताव कांग्रेस पार्टी के महा अधिवेशन में रखा था तो किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह ने उसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा था कि पंडित जी यह रूस नहीं है, यहां का किसान जमीन को अपनी मां मानता है, जमीन ही उसका सब कुछ होती है। प. नेहरू जैसी शख्सियत का खुले मंच से विरोध करना उस समय किसी के बूते की बात नहीं थी मगर स्व. चरण सिंह, जो मूल रूप से किसान थे, ने चुनौती देने का फैसला किया था और उनकी चुनौती इतनी वाजिब थी कि प. नेहरू को अपने फैसले को बदलना पड़ा, बेशक मौजूदा प्रणाली के तहत सरकार को प्रमुख उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करके किसानों की मदद करनी पड़ती है परन्तु इसमें देश के 80 प्रतिशत लोगों को वाजिब दामों पर खाद्यान्न सुलभ कराने का लक्ष्य रहता है। भारत के गांवों में एक कहावत आज भी प्रचलित है कि ‘अनाज महंगा तो सब महंगा।’ गरीब आदमी अनाज खाकर यानी दाल-रोटी खाकर ही अपना भरण-पोषण करता है। यह जिम्मेदारी हम व्यापारियों पर कैसे छोड़ सकते हैं? मगर मदद पैकेज में कृषि क्षेत्र में सम्पत्ति का सृजन (कैपिटल फार्मेशन) करने की मूल भावना है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए, इसके लिए 100 लाख करोड़ रुपये का कोष बनाने का ऐलान वित्त मन्त्री ने किया परन्तु इसका उपयोग किसानों को सशक्त बनाने के लिए होना चाहिए न कि व्यापारियों को। जाहिर है कि कृषि मंडी समिति में उपज लाने से किसान को सुनिश्चित आमदनी सरकारी गारंटी के साथ होती है, बाजार की ताकतों के हाथ में उसकी नब्ज आ जाने से वह मांग व सप्लाई के समीकरण में फंस जायेगा। विचारणीय मुद्दा यह है कि जहां तक अनुबंिधत खेती का प्रश्न है तो बीज बोने से लेकर फसल उगने तक किसान को इतने प्राकृतिक व अन्य मनुष्य जनित संकटों से जूझना पड़ता है कि फसल किसी कारणवश खराब हो जाने पर वह गुलाम बनने की हैसियत में आ जायेगा क्योंकि उस हालत में फसल बीमा का लाभ किसान को नहीं बल्कि उस व्यापारी को मिलेगा जिसने उसके साथ उपज खरीदने का अनुबन्ध किया है। हकीकत यह है कि कृषि का धंधा उद्योग नहीं है। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया का इस बारे में स्पष्ट मत था कि फसल का दाम औद्योगिक सामान के भावों के समान रूप से इसलिए बढ़ना चाहिए क्योंकि किसान अपनी फसल बेच कर स्वयं उपभोक्ता बन जाता है और अन्य नागरिकों के समान ही अपना जीवन जीता है विशेषकर छोटा किसान। बिना शक एक राज्य से दूसरे राज्य में फसल की आवाजाही पर रोक हटनी चाहिए जिससे सभी देशवासी एक समान मूल्य पर कृषि उत्पादों को खरीद सकें और किसी उत्पाद की कमी अनुभव न कर सकें। इसका लाभ अन्ततः किसानों को ही होगा। वित्त मन्त्री का यह ऐलान स्वागत योग्य है मगर किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त तभी बनाया जा सकता है जबकि बाजार को थामने की ताकत उनके हाथ में हो। कृषि क्षेत्र में सम्पत्ति का सृजन किसान के लाभ के लिए होना चाहिए व्यापारियों के लाभ के लिए नहीं।