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बाल विवाह : असम में बवाल

असम में बाल विवाह के खिलाफ हिमंता सरकार द्वारा कड़ा रुख अपनाए जाने को लेकर बवाल मचा हुआ है।

असम में बाल विवाह के खिलाफ हिमंता सरकार द्वारा कड़ा रुख अपनाए जाने को लेकर बवाल मचा हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बाल विवाह की कुरीति को खत्म करने की मांग देश की आजादी से पहले भी उठती रही है। कई समाज सुधारकों ने बाल विवाह के खिलाफ अभियान भी चलाया लेकिन भारत में अभी तक बाल विवाह की कुरीति खत्म नहीं हुई है। पिछले महीने ही असम सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई करने का फैसला किया था। सरकार ने 14 साल से कम उम्र की लड़कियों से शादी करने वाले पुरुषों के खिलाफ पाॅक्सो एक्ट के तहत कानूनी कार्रवाई करने के प्रस्ताव को भी मंजूरी देे दी थी। बाल विवाह रोकने की कार्रवाई तो सही है लेकिन जिस तरह से कानून को लागू किया गया उसे लेकर हिमंता सरकार की नीयत पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए। धड़ाधड़ गिरफ्तारियों के बीच राज्य के बोगाईगांव जिले में गर्भवती लड़की की मौत होने की बात सामने आने पर सियासी तूफान उठ खड़ा हुआ है। पुलिस द्वारा छेड़े गए अभियान के चलते कई शादियां रद्द कर दी गई हैं। लोगों को डर है कि शादी के वक्त ही पुलिस छापा न मार दे। पूरे राज्य में भगदड़ मची हुई है और आरोप लगाए जा रहे हैं कि बाल विवाह कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की आड़ में राज्य पुलिस लोगों का उत्पीड़न कर रही है।
कानून की आड़ में सात साल पहले शादीशुदा जोड़े जो कि अब एडल्ट हो गए हैं उनके खिलाफ भी कार्रवाई की जा रही है जो सरासर गलत है। विवाहित जोड़े अब अपने उम्र संबंधी दस्तावेजों को जुटाने में दर-दर भटक रहे हैं। इनमें अधिकांश वह लड़कियां हैं जिनके पतियों को जेलों में डाल दिया गया है। पूरे पुलिस अभियान को सियासी रंग दिया जा रहा है। लेकिन सच यह भी है कि सरकार के इस कदम से कई परिवारों का जनजीवन बाधित हो गया है। जिनके पति जेलों में डाल दिए गए हैं उन लड़कियों के सामने अपना और अपने बच्चों का पेट पालने का संकट भी खड़ा हो गया है। अधिकांश मुकदद्मे सिर्फ आधार कार्ड पर लिखी जानकारी के ही आधार पर दर्ज कर लिए गए हैं जबकि आधार कार्ड किसी की जन्मतिथि का पहला और अंतिम प्रमाणित दस्तावेज नहीं हो सकता। कई परिवार आधार कार्ड में गलत जानकारियां दर्ज होने की बात भी कह रहे हैं। गर्भवती लड़की की मौत के बाद गर्भवती युवतियां प्रसव के लिए अस्पताल जाने से परहेज कर रही हैं क्योंकि उन्हें डर है ​िक कहीं उनके पति को गिरफ्तार न कर लिया जाए। सरकार की कार्रवाई का जो तरीका है, उसे लेकर मुस्लिम नेता और विपक्ष हिमंता सरकार को जमकर घेर रहे हैं। उनका कहना है ​िक बाल विवाह कानून 2006 में बना ​था लेकिन इतने सालों में इसमें कुछ नहीं  किया गया। जहां तक पाॅक्सो एक्ट लगाने की बात है तो ऐसे मामलों में शादी की तारीख के तीन साल के भीतर पुरुष को चार्जशीट दाखिल करनी होती है। उससे पुराने मामलों में कोर्ट कार्रवाई नहीं कर सकता। इसलिए पाॅक्सो एक्ट लगाने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा। 
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि सरकार को बाल विवाह रोकने के लिये इतनी सख्त कार्रवाई करने पर आखिर मजबूर क्यों होना पड़ा? तो इसका जवाब भी सरकारी विभाग के आंकड़े ही देते हैं। सितंबर 2018 में प्रदेश के समाज कल्याण विभाग के  आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, असम की हर तीसरी शादी बाल विवाह है। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि निचले असम के कम से कम सात प्रमुख जिलों में बाल विवाह का सामान्य विवाह से अनुपात 2:1 है। जिसका मतलब है कि इन जिलों में हर दूसरी शादी बाल विवाह है।  हालांकि इस गड़बड़ी के लिए मुख्य रूप से मुस्लिम और चाय बागान में काम करने वाले समुदाय को ही दोषी ठहराया गया है, लेकिन सच ये है कि पिछले एक दशक में पूरे असम में ही बाल विवाहों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। राज्य के अधिकांश डॉक्टर मानते हैं कि बाल विवाह के कारण बच्चे कुपोषित होते हैं और एक तिहाई असमिया नवजात बच्चों का विकास ही अवरुद्ध हो जाता है, यानी उम्र बढ़ने के साथ भी उनका उचित विकास नहीं हो पाता है। दरअसल, हाल ही में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार, असम में मातृ और शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक है। इसके लिए भी बाल विवाह को ही जिम्मेदार ठहराया गया।
भारतीय संविधान में न्यायपालिका के संबंध में यह कहा जाता है कि यद्यपि 100 दोषी छूट जाएं लेकिन एक भी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए। इसका अ​र्थ यही है कि कानूनों में मानवीय पहलू भी काफी महत्वपूर्ण है। कानूनों से मानवाधिकार भी जुड़े हुए हैं। अब सवाल यह है कि क्या असम सरकार ने मानवीय पहलू को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है? फौजदारी कानून लागू करते वक्त मानवीय पहलुओं को नजरअंदाज करने से अभियान के परिणाम कुछ दूसरे ही निकल रहे हैं। कोई भी कानून लोगों के घर तोड़ने की अनुमति नहीं देता। यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि अगर घर टूटते हैं तो क्या सरकार शादीशुदा लड़कियों को पालन-पोषण का खर्चा देगी?  लोग सड़कों पर हैं। आक्रोश देखने को मिल रहा है। बेहतर यही होगा कि असम सरकार मानवीय दृष्टिकोण को नजरअंदाज न करें और ऐसा रास्ता अपनाए जिससे समाज को सशक्त संदेश जाए लेकिन उसका उत्पीड़न न हो।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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