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लोकतन्त्र में नागरिक निडरता!

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जब भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू ने इलाहाबाद की सभा में अपने गले में पड़ी फूलमाला उतार कर सामने की पंक्ति में सीधे अखाड़े से आकर मिट्टी में लथ-पथ बैठे महाकवि महाप्राण निराला के गले में डालते हुए यह कहा था कि समाज का सबसे बुद्धिमान और सुविज्ञ व्यक्ति ही कवि हो सकता है तो उनका सन्देश पूरे देश की जनता को यही था कि लोकतन्त्र नागरिकों को निडर और निर्भय होकर अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता देता है। उन्होंने 1956 के करीब जब यह कहा तो देश में विपक्ष के नाम पर राजनैतिक दलों की ताकत नाम मात्र की थी। मुख्य विपक्षी दल वही थे जो कांग्रेस से निकल कर ही गये थे। इनमें दक्षिण में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी और उत्तर में डा. राम मनोहर लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव की सोशलिस्ट पार्टी प्रमुख थी परन्तु नेहरू जानते थे कि भारत जैसे अंग्रेजों द्वारा लूटे गये मुल्क में हिंसक विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इसका अनुमान उन्होंने 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होते ही लगा लिया था। अतः उन्होंने बाबा साहेब अम्बेडकर की मौजूदगी में ही प्रथम लोकसभा चुनाव होने से पहले ही पहला संविधान संशोधन किया और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में हिंसा फैलाने वाले विचारों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया।

नेहरू की इस दूरदर्शिता के डा. अम्बेडकर भी कायल हुए और उन्होंने स्वीकार किया कि मैं इस पक्ष पर ध्यान ही नहीं दे पाया कि लोकतान्त्रिक भारत में अभिव्यक्ति की आजादी का लाभ हिंसा की मार्फत राजनीति को कब्जाने वाले लोग भी कर सकते हैं। मगर प. नेहरू के इस संशोधन का मुखर विरोध तब हिन्दू महासभा ने किया और इसके नेता एन.सी. चटर्जी ने पीयूसीएल संस्था के माध्यम से इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी। मुख्य तर्क यह था कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का वर्गीकरण हिंसक और अहिंसक खानों में बांट कर कैसे किया जा सकता है? जवाब बहुत ही माकूल था कि लोकतन्त्र केवल शांतिपूर्ण तरीकों से ही सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया का नाम है। सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधन को मान्य करार दिया और अहिंसक विचारों को भारतीय संविधान का अन्तरंग हिस्सा माना। तब धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हो चुका था और इससे पहले 30 जनवरी 1948 को राष्ट्पिता महात्मा महात्मा गांधी की हत्या एक हिन्दू उग्रवादी नाथूराम गोडसे ने कर दी थी और बापू की हत्या पर गोडसे की विचारधारा का समर्थन करने वाले लोगों ने सरेआम मिठाइयां बांटी थीं। प.नेहरू के साथ ही गृहमन्त्री सरदार पटेल इस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हिंसक स्वरूप का नजारा खुद कर रहे थे।

महाशोक के अवसाद भरे क्षणों का जश्न मनाना पूरे भारत की आत्मा को भीतर तक झिंझोड़ा गया था और दूरदर्शी नेहरू ने भारत के भविष्य की राजनीति का अनुमान लगाने में कोई गलती नहीं की थी। अतः यह कोई छोटा कदम नहीं था कि उन्होंने उन डा. अम्बेडकर का ध्यान हिंसक विचारों की तरफ दिलाया जिन्हें संविधान लिखने के लिए स्वयं महात्मा गांधी ने चुना था। मगर प्रथम संशोधन के बावजूद हिंसा की चुनौती भारत में जारी रही जिसका प्रमाण इस देश में होने वाले साम्प्रदायिक दंगे थे। इन्हें रोकना हर सरकार के लिए गंभीर चुनौती थी। इनका स्वरूप अब बदल रहा था। यह धर्म से सांस्कृतिक पहचान की ओर बढ़ने लगा और विचारों का अहिंसक तब मुगल और मराठा सेनाओं के युद्द में प्रतीक रूप में उभरने लगा। इतिहास के इन पन्नों की वैचारिक समीक्षाओं और विवेचनाओं में हिंसा का भाव केन्द्र मंे आने से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की शालीनता भंग हो गयी और एक ही देश के दो सम्प्रदायों के लोग आपस में एक-दूसरे को संशय की नजरों से देखने लगे। इसकी परिणिती 1990 के आसपास जाकर तब हुई जब अयोध्या में दिसम्बर 1992 में राम मन्दिर आन्दोलन चरम पर पहुंचा और बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया।

इसके बाद पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए और हिंसा की बोली राजनैतिक संवाद बन गई। यह लोकतन्त्र में लोगों के निर्भीक होने का सैनिकीकरण था जिसका संविधान पूरी तरह निषेध करता है परन्तु इसके बाद कुछ राज्यों में जिस प्रकार हिंसा को क्रिया की प्रतिक्रिया कह कर परिभाषित किया गया उसने भारतीय संविधान मंे उल्लिखित हिंसक विचारों के प्रचार-प्रसार के प्रतिबन्ध को बेमानी सा बना दिया और हम हर छोटी लकीर के आगे भी लकीर खींचते हुए आगे इस तरह बढ़े कि आज माब लिंचिंग ( भीड़ की हिंसा) का शिकार हो गये हैं। यह माब लिंचिंग और कुछ नहीं बल्कि हिंसक विचारों का प्रतिपादन ही है जो संविधान की धज्जियां उड़ा कर ऐलान कर रहा है कि भारत में विचार स्वातन्त्रता एक ही सांचे में ढला होना चाहिए। इसे बहुंसख्यक बरक्स अल्पसंख्यक कहना पूरी तरह न्याय संगत नहीं होगा क्योंकि माब लिंचिंग का दायरा केवल गऊ की कथित रक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह संविधान व कानून लागू करने वाली एजेंसियों के भी विरुद्ध है।

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने उत्तर प्रदेश में देखा है जो स्थानों बुलन्दशहर व गाजीपुर में क्रमशः इस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह व कांस्टेबल की हत्या माब लिंचिंग के रूप मंे ही की गई है। यह हिंसक विचारों के प्रचार-प्रसार का ही ऐसा स्वरूप है जिसे सांस्कृतिक जामा पहना दिया गया है। इसके अलावा जिस प्रकार देश के विभिन्न भागों से चुड़ैल या बच्चा चोर होने की आशंका में भीड़ द्वारा हत्या किये जाने की खबरें आती हैं वे भी हिंसक विचारों का ही प्रदर्शन हैं। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि निर्भीकता का अर्थ लोकतन्त्र में सत्ताधारी दल या हुकूमत में बैठे लोगों को लगातार जनता के प्रति उत्तरदायी और जवाबदेह बनाये रखने से ही होता है परन्तु ऐसी घटनाएं हमें अपनी ही चुनी हुई सरकारों की जवाबदेही करने से इस तरह बचाती हैं कि हम अपने ही खड़े किये विवादों में उलझे रहें। इसका उदाहरण पिछले लोकसभा चुनावों के समय हुए साम्प्रदायिक दंगे हैं जिनके चंगुल में फंस कर हम यह पूछना ही भूल गये थे सरकार उन हिन्दू और मुसलमान के लगे हुए खेतों के लिए क्या नीति बनायेगी जिनकी उपज का केवल 20 प्रतिशत से भी कम घोषित समर्थन मूल्य पर बिक पाता है। नेहरू का विचार स्वातन्त्रता इसी लोकतन्त्र को मजबूत बनाने के लिये था न कि माब लिंचिंग के लिए एक-दूसरे की भावना का आदर और सम्मान हाथ में अस्त्र या डंडा लेकर कैसे हो सकता है जबकि इसके लिए बाकायदा कानून है। हर चुनाव इसी विचार स्वातन्त्रता की तसदीक करते हैं क्योंकि फैसला बैलेट या बटन से होता है ‘बेंत’ से नहीं।

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