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राज्यपालों का आचरण

स्वतंत्र भारत के इतिहास में राज्यपालों और राज्य सरकारों में तनातनी और टकराव कोई नया नहीं है। राज्यपालों की कहानियां काफी चर्चित रही हैं और उनसे स्वस्थ लोकतंत्र भी बार-बार कलंकित हुआ है। राज्यपालों ने सरकारें बनाने और गिराने के खेल में संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक परम्पराओं की धज्जियां इतनी बेरहमी से उड़ाई हैं कि राज्यपालों के पद को लेकर बहुत सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं। राज्यपालों के फरमानों को सुप्रीम कोर्ट में कई बार मुंह की खानी पड़ी है लेकिन अभी तक कोई सबक नहीं सीखा गया। मौजूदा दौर में तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना और पंजाब में राज्यपालों और राज्य सरकारों में विधेयकों को मंजूरी देने में विलम्ब या सरकारों के कामकाज पर रोक को लेकर मुकदमेबाजी चल रही है। किसी राज्य के राज्यपाल के कार्यों या चूक को अदालतों के समक्ष विचारार्थ लाना एक स्वस्थ परम्परा नहीं है। इस स्थिति पर देश की सर्वोच्च अदालत की वरिष्ठ न्यायाधीश बी.वी.  नागरत्ना ने राज्यपालों की भूमिका पर अहम टिप्पणी की है।
उच्चतम न्यायालय की जज जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने कहा कि राज्यपालों को कुछ करने या न करने के लिए कहना काफी शर्मनाक है। गवर्नर को संविधान के प्रावधानों के अनुसार अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश बी.वी. नागरत्ना ने पंजाब के राज्यपाल से जुड़े मामले का जिक्र करते हुए निर्वाचित विधायिकाओं द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपालों द्वारा अनिश्चितकाल के लिए ठंडे बस्ते में डाले जाने के प्रति आगाह किया। हैदराबाद में एनएएलएसएआर विधि विश्वविद्यालय में आयोजित ‘न्यायालय एवं संविधान सम्मेलन’ के पांचवें संस्करण के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति नागरत्ना ने महाराष्ट्र विधानसभा मामले को राज्यपाल के अपने अधिकारों से आगे बढ़ने का एक और उदाहरण बताया, जहां सदन में शक्ति परीक्षण की घोषणा करने के लिए राज्यपाल के पास पर्याप्त सामग्री का अभाव था। उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल का पद एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद है और उन्हें संविधान के अनुसार अपने कर्त्तव्य का​ निर्वहन करना चाहिए। राज्यपालों की भूमिका पर जस्टिस नागरत्ना की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है। पिछले साल तेलंगाना राज्य की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल को जल्द से जल्द बिल वापस करना होगा। पंजाब राज्य द्वारा दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने एक विस्तृत निर्णय दिया कि राज्यपाल सहमति दिए बिना किसी विधेयक पर बैठकर वीटो नहीं कर सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने बिलों पर कार्रवाई में देरी के लिए केरल और तमिलनाडु के राज्यपालों की भी आलोचना की है। न्यायालय ने एक बिंदु पर यहां तक पूछा कि राज्यों द्वारा न्यायालयों में जाने के बाद ही राज्यपाल विधेयकों पर कार्रवाई क्यों करते हैं। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने विधायक के.पोनमुडी को फिर से मंत्री के रूप में शामिल करने से इन्कार करने पर तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि पर नाराजगी व्यक्त की थी, भले ही सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दोषसिद्धि को निलम्बित कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से यह भी पूछा था कि अगर राज्यपाल संविधान का पालन नहीं करते तो सरकार क्या करती है। दरअसल राज्यपालों की संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी और मनमानी का सिलसिला केन्द्र में कांग्रेस की सरकारों के रहते भी जारी रहा है। जब-जब केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार टूटा और गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें भी बनने लगीं तब-तब राज्यपालों के कारनामे सामने आए। केन्द्र में सरकार किसी की भी हो सभी ने अपने विरोधी दलों की राज्य सरकारों को परेशान किया। दलबदल को बढ़ावा देकर उन्हें गिराने में राज्यपालों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। राज्यपाल भी अपने पद को बरकरार रखने के लिए खुशी-खुशी इस्तेमाल हुए और उन्होंने केन्द्र में सत्तारूढ़ दलों को खुश करने के लिए विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को न केवल परेशान किया बल्कि राजभवन में बैठकर उन्हें अस्थिर करने की साजिशें रचीं। इसका सबसे पहला और कुख्यात उदाहरण जी.डी. तपासे ने स्थापित किया, जिन्होंने हरियाणा का राज्यपाल रहते हुए 1982 में चौधरी देवीलाल के नेतृत्व में लोकदल के विधायकों का बहुमत होते हुए भी अल्पमत वाली कांग्रेस के नेता भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दि​ला दी थी, बाद में भजनलाल ने लोकदल के कुछ विधायकों से दलबदल कराकर बहुमत साबित किया था। राज्यपालों की ऐसी कहानियों पर महाग्रंथ लिखा जा सकता है। समाजवादी नेता और चिंतक मधुलिमे कहा करते थे कि महामहिम यानि राज्यपाल का पद खत्म कर देना चाहिए। राज्यपाल सफेद हाथी है जिस पर बहुत सारा सरकारी पैसा बेवजह खर्च होता है। राज्यपाल का अपना विवेक दिल्ली में रखकर राज्य के राजभवनों में रहते हैं और उनके विवेक का इस्तेमाल वो लोग करते हैं जो उन्हें राज्यपाल के पद पर​ बिठाते हैं। राज्यपालों से जुड़ी कुछ संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं जिनका पालन करना इस पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए जरूरी है। मगर हाल ही में राज्यपाल के पद की गरिमा पर आंच आई है। इसे रोका नहीं गया तो नुक्सान लोकतंत्र का ही होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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