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जरूरी है शेख हसीना का सरताज होना

कोई चाहे तो बांग्लादेश के विपक्ष से एहसान फरामोशी सीख सकता है। जिस भारत ने बांग्लादेश को, या यूं कहें कि 1970 तक के पूर्वी पाकिस्तान, की प्रताड़ित और पीड़ित आम जनता के हितों की रक्षा के लिए पाकिस्तान से युद्ध मोल लिया, उस बांग्लादेश के प्रमुख विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) लगातार भारत के खिलाफ जहर उगलती रहती है।
उसके जहरीले अभियान से पड़ोसी मुल्क के कठमुल्लों को भी भारत और अपने ही बांग्लादेश के हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा करने का मौका मिल जाता है। बांग्लादेश में बीएनपी ने हाल ही में भारत के उत्पादों के बॉयकाट का आह्वान भी किया हुआ है। इसके चलते वहां प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की सरकार और विपक्ष आमने-सामने है। मुस्लिम बहुल बांग्लादेश में भारत विरोधी भावना कोई नई बात नहीं है। पिछले साल क्रिकेट विश्व कप में भारत की हार के बाद ढाका और वहां के कई शहरों में जश्न मना था। मैं तो स्वयं 1970 के भारत-पाक युद्ध में ‘युद्ध संवाददाता’ के हैसियत से बांग्लादेश में भारतीय सेना के साथ रहा था । युद्ध के दौरान भारतीय सेना ने लाखों बांग्ला भाषी मुसलमान भाइयों को क़त्लेआम से बचाया, हज़ारों बंगाली बेटियों और बहनों को पाकिस्तानी सेना द्वारा किए जा रहे बलात्कार से रक्षा की। इन सभी अत्याचारों का मैं प्रत्यक्षदर्शी गवाह हूं लेकिन, बांग्लादेश की आज़ादी के बाद जब बंगबंधु शेख़ मुज़ीबुर रहमान ने सभी युद्ध संवाददाताओं के साथ-साथ वरिष्ठ संपादकों को एक विशेष ट्रेन भेजकर बुलाया, तभी जगह-जगह “इंडियाज़ जिनीस- पत्तर भालो नेई” के वाल पेंटिंग देखने को मिले। जब मैंने शेख़ मुजीब के पीआरओ से पूछा कि भारत ने तो युद्ध के बाद लाखों बांग्लादेशियों को भुखमरी से बचाया, हज़ारों मकान बनवाये, फिर यह क्या चल रहा है?” तब पीआरओ ने कहा, “आप चिंता मत कीजिए। कुछ हिंदू विरोधी कट्टरपंथी हैं, उन्हें ठीक करने में सरकार लगी हुई है।’’ लेकिन वे तो आज भी बने हुए हैं, बल्कि कई गुना बढ़ गये हैं।
बांग्लादेश में भारत के कथित हस्तक्षेप को लेकर विरोध और असहमति 1990 के दशक से देखी जा रही है लेकिन हाल के वर्षों में विरोध के ये सुर कहीं ज़्यादा मुखर हुए हैं। आपको याद ही होगा कि बीएनपी और उसकी सहयोगी पार्टियों ने देश में बीती जनवरी में हुए आम चुनाव का बहिष्कार किया था। इस चुनाव में जीत के बाद शेख़ हसीना चौथी बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनी थीं। आप कह सकते हैं कि आम चुनाव के बाद से बीएनपी के अधिकांश नेता ये माहौल बनाने में जुटे हुए हैं कि बांग्लादेश के एकतरफ़ा चुनाव को सिर्फ़ भारत की वजह से वैधता मिली है और इसलिए लोगों को भारत और उसके उत्पादों का बहिष्कार करना चाहिए। बांग्लादेश से आ रही खबरों से संकेत मिल रहे हैं कि बीएनपी की विदेश मामलों की कमेटी (एफ़आरसी) चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध प्रगाढ़ करना चाह रही है। संकेत बहुत साफ है कि बीएनपी भारत से नफरत करती है। हालांकि उसकी नफरत की वजह समझ से परे है।
भारत का 1947 में बंटवारा हुआ। पंजाब और बंगाल सूबों के कुछ हिस्से पाकिस्तान में चले गए। आगे चलकर पाकिस्तान का वह भाग, जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहते थे, 1971 में एक स्वतंत्र देश के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरा। नए देश का नाम बांग्लादेश के रूप में जाना गया। उसकी स्थापना में भारत का योगदान रहा। पर, वहां पर शुरू से ही घनघोर कठमुल्ले छाए रहे। उनकी जहालत की एक तस्वीर लगातार देखने को मिलती रहती है। वहां पर हिन्दुओं और प्राचीन हिन्दू मंदिरों पर हमले लगातार होते रहते हैं। कुछ साल पहले बांग्लादेश में अमेरिकी ब्लॉगर अविजित रॉय की निर्मम हत्या और उनकी पत्नी के ऊपर हुए जानलेवा हमले से वहां पर कठमुल्लों की बढ़ती ताकत का पता चलता है। वहां पर धर्मनिरपेक्ष ताकतों के लिए स्पेस जीवन के सभी क्षेत्रों में घट रहा है।
तस्लीमा नसरीन ने भी अपने उपन्यास “लज्जा” में बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की दर्दनाक स्थिति पर विस्तार से लिखा है। इसलिए ही उनकी जान के दुश्मन हो गए यह कठमुल्ले। उसी विरोध के कारण तस्लीमा को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। तस्लीमा नसरीन का उपन्यास ‘लज्जा’ 1993 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। वह लज्जा में साम्प्रदायिक उन्माद के नृशंस रूप को सामने लाती है। लज्जा के आने के बाद कट्टरपंथियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया था। जिस कारण से वह अमेरिका चली गईं थीं। अपनी जान बचाने की गरज से तस्लीमा स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में भी रहीं। वह 2004 में कोलकाता आ गईं थीं। उन पर 2007 में हैदराबाद में भारत के कठमुल्लों ने हमला किया।
भारत का विरोध करने वालों से कोई पूछे कि क्या जब भारत ने पाकिस्तान की जालिम फौजों से पूर्वी पकिस्तान को बचाया था तब उसका कोई निजी हित-स्वार्थ था। भारत ने तब मानवता के आधार पर पूर्वी पाकिस्तान की जनता की मदद की थी। लाखों बांग्लादेशियों को अपने यहां शरण भी दी थी। पर अगर कोई इंसान या समाज एहसान फरोमोशी पर उतर आए तो आप क्या कर सकते हैं।
बीएनपी की नेता खालिदा जिया तो घनघोर भारत विरोधी रही हैं। वह जब अपने देश की प्रधानमंत्री थीं तब वहां टाटा ग्रुप की इनवेस्टमेंट करने की योजना का कसकर विरोध हुआ था। उसे हवा बीएनपी ही दे रही थी। टाटा ग्रुप की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी से की जा रही थी। टाटा ग्रुप को ईस्ट इंडिया कंपनी जैसा बताने वाले भूल गए थे कि टाटा ग्रुप भारत से बाहर दर्जनों देशों में कारोबार करता है। वहां पर तो उस पर कभी कोई आरोप नहीं लगाता।
खैर, बीएनपी के भारतीय माल के बहिष्कार के अह्वान का प्रधानमंत्री शेख हसीना ने करारा जवाब दिया है। उन्होंने कहा “जब बीएनपी सत्ता में थी तब मंत्रियों की पत्नियां भारत जाया करती थीं। वे वहां साड़ियां खरीदती थीं और इधर-उधर घूमा करती थीं…वो एक सूटकेस के साथ जाती थीं और छह-सात बक्सों के साथ लौटती थीं।” शेख हसीना भी भारतीय साड़ियां पहनना पसंद करती हैं। बांग्लादेश की स्थापना के बाद लग रहा था कि वहां पर हिन्दुओं की स्थिति सुधर जाएगी। उन्हें इंसान समझा जाएगा, पर यह हो न सका। भारत की चाहत रही है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना सत्तासीन रहें। यानी वहां पर अवामी लीग के नेतृत्व वाली सरकार रहे। निश्चित रूप से बांग्लादेश में शेख हसीना का सत्ता पर काबिज होना भारत और वहां के हिन्दुओं के हित में है।

– आर. के. सिन्हा

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