कभी सोचता हूं कि कैसा परिवार जिसकी शुरूआत महाराजा रणजीत सिंह द्वारा भारत में प्रथम सिख रियासत के संस्थापकों में से एक दिवान मूलराज चोपड़ा से हुई जो कि सिख धर्म का पालन करते थे। पांच ‘कक्कों’ पर विश्वास रखते थे। सिख धर्म के अनुसार पांच ‘कक्कों’ केश, कड़ा, कंघा, किछहरा और कृपाण रखते थे। गुरुबाणी का पाठ हमारे घर पर रोजाना चलता था। रोजाना घर के मर्द और औरतें गुरुद्वारे जाते थे। एक सिख परिवार की सम्पूर्ण परंपरा थी। दशम गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी के अनुयायी थे। प्रथम सिख बादशाह महाराणा रणजीत सिंह के सिपहसालार थे और सिख ‘अम्पायर’ के प्रधानमंत्री भी रहे।
हमारी स्व. परदादी के पिताजी स्व. शामलाल अबरोल जी कादियां में रहते थे। अमृतसर से महज 50 किलोमीटर के फासले पर कादियां कस्बा स्थित है। वहां सभी घर मुसलमानों के थे। सिर्फ दो घर हिंदुओं के थे। एक हमारी परदादी अबरोलों का घर और सामने हमारे मित्र आजकल आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे संघ के प्रचारक श्री अशोक प्रभाकर जी के परदादा का घर था।
जब स्वामी दयानंद सरस्वती जी 1875 में कादियां आए और उन्होंने वहां आर्य समाज की स्थापना की चाह जाहिर की तो हमारी परदादी के पिताजी शामलाल अबरोल ने अपने घर पर ‘ऊं’ का झण्डा उन्हीं के हाथों से लगवाया और कादियां में प्रथम आर्य समाज की स्थापना कर दी। इसलिए मेरी परदादी आर्य समाजी परिवार में जन्मीं और पढ़-लिख कर बड़ी हुईं। कादियां में उनके पिता के घर में आर्य समाज का प्रथम यज्ञ भी स्वामी दयानन्द जी ने किया, फिर आर्य समाज की रीति का पालन करते हुए तीनों वक्त सुबह, दोपहर और सायं हमारी परदादी के घर में हवन-यज्ञ होते थे। आर्य समाज के प्रचारक पुराणों और चारों वेदों ऋग वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद पर व्याख्यान करते और इस तरह पूरे अमृतसर जिले में आर्य समाज और हिन्दू धर्म का विस्तार हुआ। असल में आर्य समाज कोई धर्म नहीं है बल्कि हिन्दू धर्म में कुरीतियों को दूर करने के लिए ही इसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी।
मुझे सिख धर्म, हिन्दू धर्म और आर्य समाज अपने पुरखों से विरासत में मिला। सचमुच अद्भुत संयोग इसको नहीं कहेंगे तो क्या कहें? मेरे दादाजी और पिताजी उम्र भर पुरखों द्वारा दी विरासत का पालन करते रहे और अन्ततः शहीद हो गए। मेरी पत्नी किरण जो कि सनातनी परिवार से है, मेरे तीनों सुपुत्र यानि पूरा परिवार आज भी गुरुग्रंथ साहिब, सुखमणी साहिब और जपजी का पाठ करते हैं। कोई भी शुभ कार्य घर में हो तो पहले गुरु ग्रंथ साहिब का सहज और अखण्ड पाठ रखा जाता है, अरदास की जाती है। रामायण का सम्पूर्ण पाठ किया जाता है। मेरी पत्नी किरण ने घर में एक छोटा सा मंदिर बनाया है। वहां शिवजी, भगवान राम, कृष्ण, हनुमान जी और माता दुर्गा के मंदिर में मत्था भी टेका जाता है। फिर आर्य समाजी रीति से हवन यज्ञ होता है। क्या समन्वय है हमारी पूर्वजों की इस विरासत का? सिख धर्म, हिन्दू धर्म, सनातन धर्म और आर्य समाज।
आज अपने निवास स्थान के एकांत कक्ष में बैठा जब मैं इतिहास के पन्नों से अपनी स्मृतियों को संजाे रहा हूं, तो अनायास आंखें भरी जा रही हैं। उसी महान विरासत की प्रतीक परम्परा आजादी के पूर्व तक मुलतान और वजीराबाद में निवास करती रही जहां 31 मई, 1899 को लाला जगत नारायण जी का जन्म हुआ। जिस हवेली में उनका जन्म हुआ वहां के चप्पे-चप्पे पर पूर्वजों की छाप थी। बेहड़ा चोपड़यां दा, मुहल्ला दीवानां, दीवानां दी हवेली, गली आर्यांवाली, वजीराबाद। लक्ष्मीदास, लाला जगत नारायण जी के पिता यानी मेरे परदादा उन्हीं दीवान मूलराज जी के पौत्र थे। लालाजी के पिता का नाम लक्ष्मीदास इसलिए रखा गया था, मेरी परदादी बताती थीं कि जब वे शादी के बाद ‘दीवानां दी हवेली’ पहुंचीं ताे उस समय उनकी उम्र 23 वर्ष थी।
हवेली के कमरे-कमरे सोने से और चांदी के सिक्कों से बोरियों में बन्द भरे मिलते थे। इसलिए लालाजी के दादा ने अपने पुत्र का नाम लक्ष्मीदास यानि ‘लक्ष्मी का दास’ रखा था। उनकी सोच थी कि मेरा बेटा ‘लक्ष्मी’ की कृपा से कहीं अभिमानी न हो जाए। उन्हें लक्ष्मी का स्वामी नहीं बल्कि दास बना दिया और उनका नाम इस तरह से लक्ष्मीदास रखा गया।