दिल्ली हाईकोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मामले में खंडित निर्णय सुनाया है। एक न्यायाधीश ने इस प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया है जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा है कि असंवैधानिक नहीं है। स्पष्ट है कि यह मामला अब सर्वोच्च न्यायालय में जाएगा। याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (बलात्कार) के तहत वैवाहिक बलात्कार के अपवाद की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी है कि यह अपवाद विवाहित महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिनका उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है।
भारत में वैवाहिक बलात्कार कानून एक जटिल विषय है। इस पर फैसला करना आसान नहीं है। मैरिटल रेप को दुनिया के 50 से ज्यादा देशों में अपराध माना जाता है और इन देशों के कानून में इसके लिए सजा का प्रावधान है। मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने का विरोध करने वाले एक बड़े वर्ग का तर्क है कि इस कानून का दुरुपयोग उसी तरह शुरू हो सकता है जैैसा कि दहेज प्रताड़ना के कानून 498 ए में हुआ था। दूसरी तरफ महिला संगठनों का कहना है कि किसी भी कानून की अगर समाज में जनमत महसूस होती है तो उसे बताया जाता है और इसका कितना उपयोग और दुरुपयोग होता है, पर देखना अदालत का काम है। भारत के वैवाहिक ब्लात्कार कानून की नजर में अपराध नहीं है यानी अगर पति अपनी पत्नी की मर्जी के बगैर उससे जबरन शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे अपराध नहीं माना जाता। इससे पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने फैसला दिया था कि पत्नी के साथ वैवाहिक बलात्कार और आप्रकृतिक यौन संबंध के आरोपों से पति को छूट देना संविधान के अनुच्छेद 14 की भावनाओं के विरुद्ध है जो समानता का अधिकार देता है। कर्नाटक हाईकोर्ट की एकल पीठ ने पत्नी के कथित रूप से बलात्कार करने के मामले में चल रहा मुकदमा खारिज करने के लिए एक व्यक्ति की याचिका पर यह व्यवस्था दी थी। कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले ने पति पर बलात्कार का मामला चलाने की अनुमति देकर एक ऐसी बहस को आगे बढ़ाया जिससे बचकर निकलने में ही अब तक सभ्य समाज अपनी भलाई देखता रहा है।
जस्टिस एस. नागप्रसन्ना ने स्पष्ट किया कि बलात्कार चाहे पति ही क्यों न करे, बलात्कार ही माना जाना चाहिए। क्योंकि शादी की संस्था किसी पुरुष को अपनी पत्नी से पाशविक व्यवहार करने का लाइसेंस नहीं है और न ही ऐसा होना चाहिए। इस फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
भारत विविधा संस्कृतियों और विचारों वाला देश है। विवाह एक महत्वपूर्ण घटक है जो दर्शाता है कि हमारी संस्कृति कैसे संरक्षित है। विवाह दो व्यक्तियों के बीच एक बंधन है जो अंततः शारीरिक संबंधों के लिए वैधता प्रदान करता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या वैवाहिक संबंध में प्रवेश करने के समय दी गई निहित सहमति का मतलब हर उस चीज के लिए सहमति है जो जीवन की पूरी अवधि तक फैली हुई है या महिलाओं के पहलू देखे जाने पर इसकी कोई सीमा है। विवाह व्यक्तियों के बीच एक बंधन है, जहां उनका अपना स्थान होता है और जोर जबर्दस्ती की बजाय प्रेम विवाह को बहुत सुंदर बनाता है। एक विवाह को एक संस्कार या एक संविदात्मक संबंध कहा जा सकता है लेकिन पुरुष सीमाओं का उल्लंघन करते हैं। यौन प्रताड़ना के कई केस सामने आते हैं। दूसरा सवाल यह है कि नारी स्वतंत्रता के नाम पर पश्चिम की ओढ़ी हुई संस्कृति क्या भारत में स्वीकार की जा सकती है? भारतीय संस्कृति में वैवाहिक बंधन को गृहस्थ जीवन का रथ माना जाता है जिसके पहिए समान हों। यानी महिला- पुरुष सहमति से चले।
दरअसल, मानवीयता और पाशविकता में बुनियादी फर्क इच्छाओं पर नियंत्रण का ही है, जिसके पाठ से ही शुरू होती है हमारी सभ्यता। इसी कड़ी में शादी जैैसी संस्था की स्थापना से स्त्री-पुरुष के रिश्तों को निर्धारित करना आसान होता तो समाज अपनी कुई बुराइयों पर बहुत पहले नियंत्रण पा चुका होता। स्त्री-पुरुष के बीच रिश्ते प्रेमपूर्ण बने रहें, इसके लिए एक-दूसरे के प्रति सम्मान एक आवश्यक शर्त है। प्रेम और सम्मान न होने पर ही ‘यौन दासी’ जैसा विचार पनप सकता है और कोई व्यक्ति शादी को पाशविकता के उत्सर्जन का रास्ता समझने की भूल कर सकता है।
इस संबंध में कानून बनाने वालों के समक्ष कई तरह की उलझन पैदा हो सकती हैं, जिनसे उन्हें जूझना होगा। पहले भी बलात्कार के मामलों को साबित करने के लिए किस तरह के विज्ञान का सहारा लिया जाएगा, कैसे साक्ष्य मायने रखेंगे और कैसे अदालतें दूध और पानी को अलग कर पाएंगी। अपराध व दंड निर्धारित करने से पहले विचारणीय होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्त्री-पुरुष के संबंध कानून की किताबों से बंधकर नहीं चलते और न ही चल सकते हैं। इसलिए हमारी चिंता पहले यह होनी चाहिए कि इंसान पहले से बेहतर, सभ्य कैसे हो पाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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