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महबूबा का मन्दिर में प्रवेश!

जब भी स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था की बात होती है तो राजनीति में शामिल किसी भी व्यक्ति के मजहब की बात नहीं होती क्योंकि उसका मजहब केवल संविधान होता है और राजनैतिक दल का भी मजहब संविधान ही होता है।

जब भी स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था की बात होती है तो राजनीति में शामिल किसी भी व्यक्ति के मजहब की बात नहीं होती क्योंकि उसका मजहब केवल संविधान होता है और राजनैतिक दल का भी मजहब संविधान ही होता है। इसी वजह से भारत में किसी भी राजनैतिक दल को मजहब के आधार पर राजनीति करने की छूट नहीं है। चुनावों में मजहब को वोट मांगने का औजार नहीं बनाया जा सकता। चुनाव आयोग ऐसा करने वाले किसी भी राजनैतिक दल की मान्यता रद्द कर सकता है। संविधान में जिस धार्मिक स्वतन्त्रता को मान्यता दी गई है वह निजी आधार पर दी गई है। इसका मतलब यह है कि मजहब किसी भी नागरिक का निजी मामला है और वह चाहे जिस भी धर्म का पालन कर सकता है और उसका संवैधानिक दायरे में प्रचार-प्रसार भी कर सकता है। चूंकि भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 से ही पूर्णतः पंथ धर्मनिरपेक्ष या मोटी बोलचाल की भाषा में धर्मनिरपेक्ष है। अतः राजनीति में आने वाले हर व्यक्ति का निजी मजहब चाहे कुछ भी हो मगर सार्वजनिक रूप से वह प्रत्येक मजहब का सम्मान करने वाला ही होता है क्योंकि ऐसा करना उसका संवैधानिक दायित्व है। 
अतः जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमन्त्री महबूबा मुफ्ती ने इस राज्य के पुंछ इलाके में बने एक नवग्रह मन्दिर में  भगवान शंकर की प्रतिमा पर जल चढ़ाकर अपने संवैधानिक धर्म का ही निर्वाह किया है। इसे हिन्दू-मुस्लिम के खांचे में बांट कर जो लोग देख रहे हैं वे न तो भारत की तासीर से वाकिफ हैं और न ही जम्मू-कश्मीर की संस्कृति से परिचित हैं। इस प्रदेश की बाबा अमरनाथ गुफा की खोज भी सदियों पहले एक मुस्लिम चरवाहे ने ही की थी जिसे हिन्दू अपना पवित्र स्थल मानते हैं। इसके अलावा जम्मू से लगते इलाके में शिवकोटि गुफा की खोज भी सौ-सवा सौ साल पहले एक मुस्लिम युवा ने ही की थी। मगर बात भारत के संविधान और राजनीति की हो रही है और राजनीति में मजहब का प्रवेश सर्वथा वर्जित है। इसकी व्यवस्था हमारे संविधान में ही है। मगर भारत की संस्कृति के मानक उन मान्यताओं से जुड़े हुए हैं धर्म आधारित हैं। इसकी वजह से हम धर्म व संस्कृति के बारीक अन्तर की अनदेखी कर देते हैं और सभी परम्पराओं को एक ही चश्मे से देखने की गलती कर जाते हैं। संस्कृति लोगों के संस्कार से जन्म लेती है और भारत के लोगों के संस्कार आदिकाल से ही सहिष्णुता और समागम के रहे हैं जिसके कारण यहां विभिन्न मता-मतान्तरों के लोग एक साथ रहते आये हैं। 
जम्मू-कश्मीर की राजनैतिक पार्टियां चुनाव आयोग से मांग कर रही हैं कि राज्य में अब चुनाव जल्दी कराये जाने चाहिए क्योंकि चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन का कार्य पूरा हो चुका है। मगर इससे पहले इस राज्य को पूर्ण दर्जा दिया जाना जरूरी है। यह काम केन्द्र सरकार ही कर सकती है क्योंकि 5 अगस्त, 2019 को संसद के माध्यम से सरकार ने ही इस राज्य को दो हिस्सों में बांटकर केन्द्र प्रशासित राज्यों की श्रेणी में खड़ा कर दिया था। परन्तु केन्द्र सरकार संसद में ही दिये गये अपने उस आश्वासन से भी बंधी हुई है जिसमें उसने जम्मू-कश्मीर को यथा समय पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वचन दिया था। राजनैतिक दलों का कहना है कि केन्द्र सरकार जब यह स्वयं कह रही है कि सूबे की परिस्थितियों में सकारात्मक बदलाव आया है और आतंकवाद कम हुआ है तो राजनैतिक प्रक्रिया पूरी होनी चाहिए और राज्य के लोगों के संवैधानिक अधिकार एक पूर्ण राज्य के रूप में दिये जाने चाहिए। राज्य के लोगों को पूर्ण विधानसभा दिया जाना उनका हक भी है क्योंकि अपने विशेष राज्य का दर्जा खोकर उन्होंने भारत के अन्य राज्यों के नागरिकों की तरह ही सम्पूर्ण संवैधानिक अधिकार प्राप्त किये हैं। इस पृष्ठ भूमि में यदि महबूबा मुफ्ती एक मन्दिर में जाकर अपने राजनैतिक धर्म का निर्वाह कर रही है तो उनका स्वागत होना चाहिए। इससे भारत की उस महान संस्कृति की ही झलक मिलती है जिसे ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ कह कर महात्मा गांधी ने पल्लवित किया था। इसमें तो हमें उस भारत के दर्शन होते हैं जिसे संविधान में संजोया गया है और राजनीति का धर्म बताया गया है।
 भारत में धर्म का मतलब मूलतः मजहब या पूजा पद्धति नहीं होता बल्कि दायित्व या कर्तव्य होता है। अतः प्रत्येक राजनीतिज्ञ का धर्म या दायित्व है कि वह सभी धर्मों का आदर करें और सार्वजनिक जीवन में अपने मजहब का प्रदर्शन न करे। यह उसका निजी मामला है, जैसा कि संविधान कहता है। भारत के लोग तो पीर-फकीरों की मजार पर भी जाते हैं और अधिसंख्या पीर- फकीर मुसलमान ही होते रहे हैं। उनकी मजारों पर हिन्दू श्रद्धालु मुसलमानों से अधिक जाते रहे हैं। एेसा नहीं है कि  विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमान हिन्दू तीर्थों में नहीं जाते हैं। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में स्थित देवी हिंगलाज मन्दिर में प्रति वर्ष वहां के मुस्लिम नागरिक भी जाते हैं और उस यात्रा को ‘नानी या दादी की हज’ का नाम देते हैं। तर्क तो यह है कि राजनीति में मजहब के आने से भारत दो देशों में बंट गया जो इस भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति के माथे पर कलंक की तरह है वरना इसी की संस्कृति में गुरु नानक देव जी महाराज भी जन्मे और उन्होंने उवाच किया-
‘‘कारण कर करन करीम
किरपा धार तार रहीम’’

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