मुझे मेरा पूरा देश आज क्रुद्ध चािहए,
झोंपड़ी की भूख के विरुद्ध युद्ध चाहिए,
चाहे आप सोचते हों ये विषय फिजूल है,
किन्तु देश का भविष्य ही मेरा उसूल है,
आप ऐसा सोचते हैं तो भी बेकसूर हैं,
क्योंकि आप भुखमरी की त्रासदी से दूर हैं,
मैंने ऐसे बचपनों की दास्तां कही है,
जहां मां की सूखी छातियों में दूध नहीं है,
जहां गरीबी की कोई सीमा रेखा ही नहीं,
लाखों बच्चे हैं जिन्होंने दूध देखा ही नहीं है।
कविवर हरिओम पंवार की पंक्तियां आज के समय की घटनाओं को उजागर कर रही हैं। भारत फ्रांस को पछाड़कर विश्व की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। देश में विकास की रफ्तार भी ठीक है लेकिन अफसोस कि देश की राजधानी दिल्ली के मंडावली क्षेत्र में तीन बच्चियों की मौत का कारण भूख और कुपोषण बताया गया है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि बच्चियों के पेट में अन्न का दाना भी नहीं था। बच्चियों का पिता किराये की रिक्शा चलाता है लेकिन कुछ दिन पहले रिक्शा लूट लिया गया था। कोई काम नहीं था। किराया न चुकाने पर मकान मालिक ने उन्हें घर से निकाल दिया था। उन्होंने एक झुग्गी में रहना शुरू कर दिया था। पैसे नहीं होने पर 8 दिन से घर में खाना नहीं बन रहा था। इस घटना से दिल्ली का शर्मसार कर देने वाला चेहरा सामने आया है। अब इन मौतों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए, गरीबी या निष्ठुर हो चुकी व्यवस्था या फिर संवेदनहीन हो चुके समाज को। कालाहांडी, बुन्देलखंड और झारखंड से भूख से मौतों की खबरें तो कई वर्षों से आ रही हैं लेकिन गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के महानगर दिल्ली में कोई भूख से कैसे मर सकता है?
मरने वालों के नाम आैर जगह बदल जाती है लेकिन ऐसी कहानियां उत्तर भारत के कई राज्यों में भी सामने आ चुकी हैं। क्या इन मौतों के लिए सत्ता को शर्मिंदा नहीं होना चाहिए? इस देश में कोई नहीं चाहता कि कोई व्यक्ति भूख से मर जाए। महात्मा गांधी भी ऐसा नहीं चाहते थे। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने मशहूर भाषण ‘नियति से सामना’ में महात्मा गांधी का नाम लिए बिना कहा भी था कि हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हरेक व्यक्ति की आंख से आंसू मिट जाएं, ऐसा नहीं हो पाया। इसके लिए जवाबदेह किसको ठहराया जाए? हर बार भूख से मौतों काे लेकर राजनीतिक दल एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लग जाते हैं। भूख से होने वाली मौतें किसी पार्टी विशेष से नहीं जुड़ी होतीं इसलिए मामलों पर लीपापोती कर दी जाती है। ऐसी मौतों का संबंध आर्थिक और सामाजिक संरचना से जोड़ दिया जाता है।
पिछले वर्ष झारखंड में 11 साल की बच्ची संतोषी की मौत हो गई थी। जब उसने जीवन की अन्तिम सांस ली तो उसकी जुबां पर यही शब्द थे ‘भात-भात’। उसकी मां राशन लेने गई तो आधार कार्ड से राशनकार्ड लिंक न होने के कारण उसे राशन नहीं दिया गया। अधिकारी कहते रहे कि उसकी मौत भूख से नहीं हुई बल्कि बीमारी से हुई है। दिल्ली में भूख से बच्चियों का मरना भारत के विकास की कहानी का सच बयान करता ऐसा दस्तावेज है जिससे भारत आैर इंडिया का अंतर स्पष्ट हो जाता है। हमारे विकास की कहानी ऐसे विकट विरोधाभासों से भरी पड़ी है। हम चाहे परमाणु शक्ति हैं, अंतरिक्ष विज्ञान में तरक्की का हम गुणगान करते रहते हैं, अनाज उत्पादन में हम न केवल आत्मनिर्भर हैं बल्कि विदेशों को भी निर्यात करते हैं लेकिन उसकी हकीकत गरीब को भूखा मरते देखने की है। खाद्य सुरक्षा कानून को हम कई वर्षों से ढो रहे हैं, उसकी कैफियत क्या यह हो सकती है कि कोई व्यक्ति भूख से ही दम तोड़ दे। वैश्विक भूख सूचकांक में देश 100वें स्थान पर है। इस सूची में 119 विकासशील देश शामिल हैं। इससे पहले भारत 97वें स्थान पर था। यानी इस मामले में भारत की हालत बिगड़ी है। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक होने के साथ ही भारत के माथे पर दुनिया में कुपोषण के शिकार लोगों की आबादी के मामले में भी दूसरे नम्बर का कलंक है। देश में बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रमों के बावजूद देश में बड़ी आबादी कुपोषण के खतरे से जूझ रही है।
तमाम योजनाओं के बावजूद अगर देश में भूख और कुपोषण के शिकार लोगों की आबादी बढ़ रही है तो स्पष्ट है कि योजनाओं को लागू करने में गड़बड़ियां हैं। करोड़ों रुपए का अनाज हर साल खुले में पड़ा बारिश में भीग जाता है। काश! यह अनाज गरीबों तक पहुंच पाता। देश में 19 करोड़ लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता। लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। 5 साल से कम उम्र के 40 फीसदी से ज्यादा बच्चों का वजन तय मानकों से बेहद कम है। हजारों टन गेहूं गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ जाता है लेकिन गरीब की थाली तक नहीं पहुंचता। समाज भी संवेदनहीन हो चुका है। साथ के घर में रह रहे लोग सिर पटक-पटक कर मर जाएं तो पड़ोसियों को आवाज तक सुनाई नहीं देती। दरअसल हमारी सरकारों की प्राथमिकता कभी भूख से युद्ध लड़ने की रही ही नहीं। 2028 तक जब भारत की आबादी 145 करोड़ हो जाएगी तब तो हालात आैर खराब हो जाएंगे। संसद में इस पर बहस होनी चाहिए और योजनाओं को नए सिरे से लागू करने पर विचार होना ही चाहिए।