गृहमन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए जाति आधारित जनगणना कराने का अहम फैसला लिया है जिसके परिणाम 2021 में सामने आयेंगे। देश में पिछड़ों की जनसंख्या जानने के लिए आजादी के बाद मनमोहन सरकार के कार्यकाल में 2011 में अन्तिम प्रयास हुआ था और सामाजिक व शैक्षिक आधार पर जातिगत पिछड़ापन जानने हेतु जनगणना कराई गई थी, परन्तु भारत के नागरिक महापंजीयक कार्यालय ने इसे दोषपूर्ण माना क्योंकि इसमें 46 लाख के लगभग जातियों, उपजातियों, समूहों, उपनामों व गोत्रों आदि की गणना की गई जिसमें पिछड़े वर्गों की सही गणना करना असाध्य हो गया।
मनमोहन सरकार ने यह जनगणना 1931 में ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई जनगणना के बाद कराई थी परन्तु इससे पिछड़े वर्गों की सटीक निशानदेही नहीं हो सकी और न ही उनकी सही जनसंख्या का ही अंदाजा हो सका मगर मौजूदा भाजपा सरकार ने भी बिना पिछड़ों की सही निशानदेही किये पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा संसद के माध्यम से दे दिया। अब सवाल यह है कि जब पिछड़ों की सही संख्या के बारे में ही पता नहीं है तो मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद उन्हें 1990 में दिये गये 27 प्रतिशत आरक्षण का मूल्यांकन किस तरह सामाजिक न्याय की तराजू पर खरा उतरेगा। अतः श्री राजनाथ सिंह का फैसला पूरी तरह न्यायसंगत और तर्कसंगत है जिससे पिछड़ा वर्ग आयोग अपना कार्य समुचित तरीके से कर सकेगा मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछड़ों के मुद्दे पर भारत की राजनीति उबाल खाती रही है और इसने कई बार सामाजिक समरसता को भी प्रभावित किया है मगर हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है क्योंकि जातियों के आधार पर भारत में ऊंच-नीच की सामाजिक संरचना इस प्रकार पुख्ता है कि यह सभी सामाजिक सुधारों और प्रगतिशील विचारों को निगल जाती है।
भारत की संसद इस बात की गवाह है कि किस प्रकार इस मुद्दे पर मनमोहन सरकार के दौरान ही हंगामा मचा था और तब पिछड़ों व शोषितों के मसीहा माने जाने वाले नेता शरद यादव ने ताल ठोक कर कहा था कि या तो भारत से जाति व्यवस्था समाप्त कर दीजिये वरना उन लोगों को न्याय दीजिये जो जाति की वजह से ही शैक्षिक व सामाजिक आधार पर पिछड़े हुए रह गये हैं। इस व्यवस्था को बदलने के लिए हमें सत्ता में इन वर्गों की यथोचित भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी जिसके बिना सामाजिक न्याय का सपना पूरा नहीं हो सकता। दरअसल श्री यादव ने वही कहा था जो दशकों पहले समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था और स्पष्ट किया था कि भारतीय समाज की बहुसंख्यक ग्रामीण परिवेश की दबी हुई जनता का संभ्रान्त कहे जाने वाले लोग बहुत ज्यादा दिनों तक राजनीतिक सत्ता में हक नहीं मार सकते हैं। जिस दिन उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत को पहचान लिया उसी दिन से वे इसमें अपना हिस्सा मांगने लगेंगे। यही वजह थी कि डा. लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी में पिछड़े वर्गों के नेतृत्व को जमकर उभारा मगर वर्तमान सन्दर्भों में गृहमन्त्री की दूरदर्शिता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि पिछड़े वर्गों को राजनैतिक हिस्सेदारी किस प्रकार मिलेगी? यह सवाल भी मुंह बाये खड़ा हुआ है कि पिछड़ों में भी अति पिछड़ों की निशानदेही होनी चाहिए और उनके साथ भी न्याय होना चाहिए।
जब 1990 में मंडल आयोग के अपने अनुमान के अनुसार इन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला संविधान की कसौटी पर सर्वोच्च न्यायालय ने खरा करार देते हुए कुल आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा लगा दी थी तो 1991 में प्रधानमंत्री स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को सामान्य कोटे में से 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करा दिया था और कहा था कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। यह तो सभी जानते हैं कि अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों व शिक्षा के क्षेत्र से लेकर राजनैतिक क्षेत्र में भी 22 प्रतिशत के करीब आरक्षण है परन्तु जो 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों के लिए 1990 में हुआ था उसमें अब अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने की बात चल रही है। अर्थात कोटे के भीतर कोटा देने की नीति को सरकार स्वीकार करके चल रही है। इसी वजह से मौजूदा सरकार ने अक्टूबर 2017 में अति पिछड़ा आयोग दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री जी. रोहिणी की अध्यक्षता में गठित किया था। इस आयोग को अपनी रिपोर्ट देने के लिए तीन बार समय बढ़ाया गया है।
अब इसकी अन्तिम रिपोर्ट आगामी नवम्बर महीने में आयेगी। जाहिर है इसमें अति पिछड़ों को पिछड़ों के कोटे के भीतर ही आरक्षण देने की व्यवस्था होगी। इससे पिछड़े वर्ग के लोगों के भीतर आपसी मनमुटाव पैदा होने की आशंका बनी रहेगी और जमकर राजनीति न हो एेसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि लोकसभा चुनावों में तब ज्यादा समय शेष नहीं रहेगा। दरअसल राजनैतिक लाभ के लिए आरक्षण घोषित करने को हम किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। पिछली मनमोहन सरकार ने जाटों को पिछड़े वर्ग में रखकर आरक्षण देने का फैसला किया था मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे रद्द कर दिया था मगर पिछड़े समुदायों की जो जनगणना अब होनी है उसमें हमें यह ध्यान रखना होगा कि इसमें धर्म की दीवार बीच में नहीं आ सकती क्योंकि अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम समुदाय के भीतर भी एेसी जातियां हैं जो जो हिन्दू समुदाय की िपछड़ी व अति पिछड़ी जातियों के लोगों के समकक्ष ही आती हैं। पिछड़ेपन का आकलन समावेशी स्वरूप में ही होना चाहिए।