प. बंगाल में चल रहे विधानसभा चुनावों के दौरान शनिवार को इसके कूचबिहार जिले के ‘सीतलाकुची’ क्षेत्र के एक मतदान केन्द्र पर गलत अफवाहों के चलते जिस प्रकार की हिंसा हुई उसके लिए लोकतन्त्र में कोई स्थान नहीं है। कुछ लोगों ने इस अफवाह को जिस प्रकार साम्प्रदायिक रंग में पेश करके स्थानीय लोगों को मतदान केन्द्र पर तैनात सुरक्षा बलों के खिलाफ भड़काया वह भी निन्दनीय है मगर राज्य की मुख्यमन्त्री व तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता बनर्जी ने इसके लिए जिस प्रकार भाजपा के केन्द्रीय नेताओं पर आरोप लगाये वे भी कम निन्दनीय नहीं हैं क्योंकि चुनाव में बेशक विभिन्न दलों के प्रत्याशी खड़े होते हैं मगर ये चुनाव आम जनता ही करती है और एक वोट की ताकत से किसी भी दल के प्रत्याशी का राजतिलक करती है। निश्चित रूप से यह भी जांच का विषय है कि मतदान केन्द्र पर तैनात सुरक्षा एजेंसी केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) के जवानों ने किन परिस्थितियों में भीड़ पर काबू रखने के लिए गोलियां चलाईं जिसमें पांच नागरिक हताहत हुए। इसकी जांच की अंतिम जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ही है क्योंकि उसी के आदेश पर चुनाव के शान्तिपूर्ण संचालन के लिए केन्द्रीय सुरक्षा बल प. बंगाल में तैनात किये गये हैं। चुनाव आयोग ने ही प. बंगाल में आठ चरणों में मतदान कराने का फैसला किया था।
जाहिर है कि यह फैसला राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति को देखते हुए ही लिया गया होगा क्योंकि आयोग ने विगत 27 मार्च से शुरू पांच राज्यों में से तीन के चुनाव तमिलनाडु, केरल व पुडुचेरी के एक ही दिन 6 अप्रैल को कराये और इन राज्यों में हिंसा की कोई वारदात नहीं हुई। चुनाव आयोग की दरख्वास्त पर ही केन्द्र ने चुनावी प्रबन्धन के लिए भारी संख्या में केन्द्रीय सुरक्षा बलों को प. बंगाल भेजा। इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव आयोग को डर था कि राज्य में चुनावों के समय कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। सवाल उठना लाजिमी है कि सुरक्षा बलों ने गोली चलाने से पूर्व जिले के कलेक्टर या पुलिस कप्तान से आज्ञा ली थी या नहीं? मामला निरीह नागरिकों के मारे जाने का है, अतः राज्य सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती है। वैसे प. बंगाल में चुनावी हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है मगर यह हिंसा प्रायः वामपंथियों के दायरे में सिमटी रहती थी। इस बार राज्य में जो राजनीतिक परिस्थितियां हैं उनमें वामपंथी हाशिये पर चले गये हैं और असली टक्कर तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के बीच हो रही है। यह लड़ाई इतनी भीषण होगी इसकी कल्पना प्रायः राजनीतिक पंडितों ने नहीं की थी। मगर एक सत्य तो स्वीकार करना पड़ेगा कि प. बंगाल में हिंसा को राजनीतिक संस्कृति बनाने की जो शुरूआत वामपंथियों ने की थी वह इस राज्य का पीछा नहीं छोड़ रही है। ममता दी ने 2011 में इसी संस्कृति को जड़-मूल से उखाड़ कर फैंक दिया था परन्तु कालान्तर में उनकी पार्टी में भी यह बुराई आने लगी। इसके प्रमाण में चुनाव से पहले राज्य में हुई राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं का आंकड़ा है।
यह आंकड़ा बताता है कि सत्तारूढ़ दल किस प्रकार बर-जोरी करता है परन्तु कूचबिहार की हिंसा ने एक नया आयाम यह खोला है कि अफवाहें फैला कर भोले-भाले नागरिकों को हिंसा के लिए उकसाया जा सकता है और पूरी चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित किया जा सकता है। चुनाव आयोग ने हिंसा के बाद कल ही विवादास्पद मतदान केन्द्र पर वोटिंग बन्द करा दी थी। अब यहां पुनर्मतदान होगा। पूरे मामले में सबसे विस्मयकारी यह है कि सीआईएसएफ के अनुसार गुस्से में भरी हुई भीड़ उसके जवानों की राइफलें छीनने पर उतारू थी। ऐसा दो बार हुआ। पहली बार तो भीड़ के गुस्से पर नियन्त्रण करने में सुरक्षा बल कामयाब हो गये परन्तु इसके एक घंटे बाद पुनः बड़ी संख्या में लोग आये और उन्होंने सीआईएसएफ के जवानों पर सीधा हमला बोला और राइफलें छीनने का प्रयास किया, तब गोली चलाई गई जिसमें पांच व्यक्ति मारे गये। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि अफवाहबाजों ने हिंसा का बाजार गर्म करने की कोशिश की। इस मामले में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप चुनावों के चलते जारी रह सकते हैं मगर जिन नागरिकों की मृत्यु हई उसका हर्जाना कोई नहीं भर सकता।
चुनाव लोकतन्त्र का जश्न होते हैं जिसमें इसका मालिक आम मतदाता पांच साल के लिए अपने सेवादारों को चुनता है। भारत का संविधान यह जिम्मेदारी चुनाव आयोग को देता है कि वह पूर्ण स्वतन्त्र व निर्भय वातावरण में मतदान कराये। इसी वजह से जिस राज्य में भी चुनाव होता है वहां का शासन अगली व्यवस्था होने तक चुनाव आयोग के हाथ में चला जाता है। यही वजह रही कि चुनाव आयोग ने प. बंगाल में बड़े पैमाने पर पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले भी किये। इसके बावजूद यदि हिंसा की घटनाएं होती हैं तो मानना पड़ेगा कि यह राज्य हिंसा की राजनीतिक संस्कृति से अभी तक मुक्त नहीं हो पाया है। ममता दी को यह स्वीकार करना चाहिए कि सिर्फ आरोप लगा देने से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें अपनी कार्यशैली से भी लोगों को प्रेरित करना पड़ेगा कि वे हिंसा से दूर रहें। दूसरे केन्द्रीय एजेंसियां प. बंगाल में शान्तिपूर्ण मतदान कराने गई हैं, उन्हें यह साबित करना पड़ेगा कि उनकी भूमिका को लेकर आम लोगों में किसी प्रकार का भ्रम न फैलने पाये। सीतलाकुची जैसी घटना अफवाह के चलते ही हुई है, उसकी संभावनाएं जड़ से समाप्त की जानी चाहिए। मगर ममता दी को यह समझना चाहिए कि घटना की सीआईडी जांच कराने से कुछ नहीं होगा क्योंकि मतदान के अभी चार चरण और शेष हैं। भाजपा के नेताओं व ममता दी को मतदाताओं को सन्देश देना होगा कि वे सब्र के साथ दुनिया के सबसे बड़े ‘अहिंसक हथियार’ एक वोट का इस्तेमाल करें और प. बंगाल का मस्तक ऊंचा रखें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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