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फिलहाल बातचीत रहेगी जारी…

क्या भारत और चीन में पूर्वी लद्दाख में चल रहा गतिरोध ऐसे ही बना रहेगा या इसका समाधान हो जाएगा? विदेश मंत्री एस. जयशंकर के वक्तव्य से यह सवाल उठना जरूरी है।

क्या भारत और चीन में पूर्वी लद्दाख में चल रहा गतिरोध ऐसे ही बना रहेगा या इसका समाधान हो जाएगा? विदेश मंत्री एस. जयशंकर के वक्तव्य से यह सवाल उठना जरूरी है। अब तक सैनिकों के पीछे हटने को लेकर सैन्य और राजनीतिक स्तर पर 9 दौर की वार्ता हो चुकी है लेकिन कोई प्रगति नहीं। पिछले  वर्ष 5 मई से पूूर्वी लद्दाख में सैन्य गतिरोध चल रहा है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर गतिरोध कैसे टूटेगा और सीमा पर शांतिपूर्ण माहौल बनेगा। यद्यपि विदेश मंत्री ने यह भी कहा है कि चीन से बात होती रहेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीन की चुनौती हमारे लिए बनी हुई है। पड़ोसी देशों को धमकाने और उनकी सीमा में घुस कर अतिक्रमण करने की चीन की ​विस्तारवादी नीतियों पर अमेरिका ने सख्त रुख अपनाया है। इससे एक बात तो तय है कि अमेरिका और चीन के संबंध सामान्य नहीं होने वाले। भारत को अमेरिका के रुख से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद यह पहला मौका है जब अमेरिका ने चीन को कड़े शब्दों में चेताया है कि वह पड़ोसी देशों को डराना-धमकाना बंद करे, जाहिर है कि इस वक्तव्य का सीधा संबंध भारत और ताइवान से ही है। बाइडेन प्रशासन ने हिन्द महासागर से भी चीन के बढ़ते कदमों पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि वह इस क्षेत्र में भारत के हितों को प्रभावित नहीं होने देगा। 
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद ऐतिहासिक मसला है। इससे संबंधित प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने से पहले 1913 में सीमा से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया गया है। कुल मिलाकर तीन किताबें ऐसी हैं जिनमें इस जटिल मसले पर रोशनी पड़ती है। नेविल मैक्सवेल इंडियाज चाइना वार, एजी तूरानी की इंडिया-चाइना बाउंड्री प्राब्लम और ब्रिगेडियर जेपी दलवी की हिमालयन ब्लंडर। इन तीनों किताबों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह जटिल समस्या ऐतिहासिक हितों, समझौतों और महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है। चीन इसी सीमा विवाद की आड़ में अपनी विस्तारवादी नीतियों पर अमल करता रहा। 
चीन लम्बे अर्से से हमारी जमीन हथियाने में लगा रहा है। एक शातिर खिलाड़ी की तरह वह हमारी जमीन हथियाना चाहता है। चीन की यह हरकत न तो पहली है और न ही अंतिम। इससे पहले भी उसकी ऐसी घुसपैठ का सामना करते आए हैं। 1962 में भारत-चीन के बीच हुए युद्ध के बाद पिछले दशकों में दो देशों ने सभी क्षेत्रों में सफलता की इबारत गढ़ी। दोनों के रिश्तों में जहां उतार-चढ़ाव दिखा, वहीं अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर इनकी भूमिका भी बदली। दोनों ही देश अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एशियाई महाशक्ति के तौर पर उभरे हैं। दक्षिरण एशिया की बदलती राजनीति कूटनीतिक, आर्थिक एवं सामरिक परिस्थितियों में इन दोनों को कहीं न कहीं एक-दूसरे के सामने खड़ा किया है। एक-दूसरे में आगे निकले की होड़ ने प्रतिस्पर्धा को तो बढ़ाया ही, इनमें संघर्ष के नए बिन्दू भी उभारे। परमाणु ताकत से लैस दोनों देशों के आपसी संबंध तमाम प्रयासों के बावजूद अच्छे नहीं हो सके। इस बार चीन के कृत्यों ने उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं। लिहाजा आम भारतीय जनमानस उसे पाकिस्तान से बड़ा खतरा मानने पर विवश हुआ है। चीन भारत के लिए अब कोई हौव्वा तो नहीं रहा क्योंकि भारत भी अब 1962 वाला भारत नहीं है। भारत आज न केवल​ विश्व की उभरती अर्थव्यवस्था है, बल्कि एक बड़ी सामरिक शक्ति भी है। डोकलाम में उसे पहली बार भारत के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। उसने लद्दाख में हमें घेरने की कोशिश की तो भी उसे गलवान घाटी में भारत के कड़े  प्रतिरोध का सामना करना पड़ा और उसके 40 से अधिक जवानों को जान गंवानी पड़ी। भारतीय जांबाज सै​िनकों ने चीन की पीएलए के जवानों की गर्दनें मरोड़ दी। पूरी दुनिया में चीन को शर्मसारी न झेलनी पड़े इसलिए उसने कभी अपने मारे गए जवानों की संख्या तक नहीं बताई। भारत जानता है कि पड़ोसी चीन शांति की भाषा समझना नहीं चाह रहा है तो भारत ने भी खुद को बदल लिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ने भी चीन के संदर्भ में रक्षा, विदेश कूटनीतिक और सामरिक नीतियों में बदलाव किया है। 
भारत ने श्रीलंका, नेपाल, भूटान, बंगलादेश और मालदीव में चीन द्वारा दबदबा कायम करने के कई प्रयासों को झटका दिया है। चीन की घेराबंदी के लिए अमेरिका ने भारत, आस्ट्रेलिया और जापान के साथ मिलकर चार देशों का संगठन क्वाड भी बनाया ताकि जब भी नौबत आए वह अकेला न रहे। अमेरिकी अपने हितो को सर्वोपरि रखते हैं। अमेरिका सिर्फ भारत को बचाने के लिए चीन को धमका रहा है, ऐसा मानना बड़ी भूल और भ्रम होगा। बल्कि इसके पीछे रणनीति भारत की आड़ लेकर अपने ​हितों को साधना है।
फिलहाल इतना तो साफ है कि अमेरिका की रणनीति चीन पर दबाव बनाए रखने की रहेगी। इसीलिए उसने भारत की तरफदारी की है। चीन यह भी जानता है कि भारत अब सामरिक शक्ति है, इसलिए वह वार्ता के नाम पर मसले को लटकाए रखना चाहता है।विवाद का हल पूरी तरह से व्यावहारिक दृष्टि से ही निकाला जा सकता है। भारत और चीन दोनों दुनिया की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाएं हैं और इनके आर्थिक एक-दूसरे से सहयोग किये बिना संरक्षित नहीं रह सके। चीन काे अपना हठी रवैया छोड़ कर भारत से संबंध सामान्य बनाने चाहिए। रिश्ते मधुर तभी होंगे जब इसमें चीनी मिलाई जाए। चीनी कम होगी तो ​रिश्तों में कड़वाहट जारी रहेगी। फिलहाल वार्ता से ही समाधान की उम्मीद है।

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