महिलाएं आज देश के किसी शहर में सुरक्षित नहीं। पिछले तीन दिनों में देश के चार राज्यों में बलात्कार की घटनाओं ने लोगों को दुःख और आक्रोश से भर दिया है। तेलंगाना के हैदराबाद में महिला वैटेनरी डॉक्टर से गैंगरेप के बाद हत्या कर शव जलाने, चंडीगढ़ में आटो चालक द्वारा नाबालिग के साथ रेप, बड़ोदरा के एक पार्क में मंगेतर के साथ बैठी लड़की से मारपीट के बाद गैंगरेप और रांची में एक लॉ स्टूडैंट से दर्जन भर लड़कों द्वारा बलात्कार की घटनाओं ने सभी को झकझोर कर रख दिया है।
इन्हीं घटनाओं से क्षुब्ध देश की बेटी अनु दुबे अकेले संसद भवन के सामने प्रदर्शन करने लगी। संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों से सवाल करने लगी तो दिल्ली पुलिस को नागवार गुजरा। दिल्ली पुलिस ने उसे उठाकर सात घंटे थाने में रखा और महिला कांस्टेबलों ने उसे नाखुनों से नोंच डाला। क्या देश की बेटी को सरकार से सवाल पूछने का भी हक नहीं? दिल्ली के वीभत्स निर्भया कांड के बाद देश में क्या बदला? देश में अगर कोई बदलाव नहीं आया तो क्यों नहीं आया। कोई जनप्रतिनिधि देश की बेटी के सवालों का जवाब देने क्यों नहीं आया।
खुले समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग जितनी भी बहस करें लेकिन यह वास्तविकता है कि बदलते दौर में नई पौध ने सामाजिक मर्यादाओं का सम्मान हाशिये पर धकेल दिया है। बेटियों के लिए शहर अनसेफ हो गए हैं क्योंकि हर जगह हैवान फैल गए हैं। ये घटनाएं कानून व्यवस्था पर भी सवाल उठाती हैं। स्पष्ट है कि निर्भया कांड के बाद ऐसे क्रूरतम अपराधों के लिए सजाएं सख्त किए जाने के बावजूद अपराधियों में कानून का कोई भय नहीं रहा। आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा? देश की सहमी हुई बेटियां यही सवाल कर रही हैं।
बलात्कार की घटनाओं में यौन जरूरतों की भूमिका हो सकती है मगर यह सिर्फ यौनिकता से संबंधित नहीं है। इसका संबंध अधिकार या काबू करने की ताकत से है। नियंत्रित करने की चाह बहुत सी चीजों से उपजती है। समाज में एक बुनियादी गलती यह है कि हमने युवाओं के दिमाग में कहीं न कहीं यह बात डाल दी है कि महिला एक वस्तु है, चीज है, जिस पर आप कब्जा कर सकते हैं। मूल रूप से इस समस्या की जड़ जीवन की भौतिकता में काफी ज्यादा डूबने में जमी है। अब देशभर में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों के खिलाफ प्रदर्शन होंगे, इंसाफ के लिए कैंडल मार्च होंगे। देश की चेतना को फिर से जगाने का प्रयास किया जाएगा।
बलात्कार की घटनाओं में बढ़ौतरी के लिए सिनेमा और टीवी को कोसने या समाज के किसी खास वर्ग की आलोचना का अब कोई अर्थ ही नहीं रह गया। आज हम उस दौर से बहुत आगे जा चुके हैं। इंटरनेट क्रांति और स्मार्टफोन की सर्वसुलभता ने पोर्न या वीभत्स यौन चित्रण को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है। कल तक इसका उपभोक्ता केवल समाज का उच्च मध्य वर्ग या मध्य वर्ग होता था, आज यह समाज के हर वर्ग के लिए सुलभ है। सबके हाथ में मोबाइल फोन है। कीवर्ड लिखनेे की भी जरूरत नहीं, आप बोलकर भी सब कुछ देख सकते हैं। तकनीक और माध्यम बदलते रहते हैं लेकिन मानसिक प्रवृतियां कायम रहती हैं।
फुटपाथ पर बिकने वाले अश्लील सािहत्य से लेकर आज हम यूट्यूब तक पहुंच चुके हैं लेकिन एक समाज के रूप में हमारी यौन प्रवृतियां बद से बदतर होती गईं। ज्यादा समय नहीं हुआ जब कठुआ की 8 वर्षीय बालिका के साथ जघन्य अमानवीय कृत्य भारत में पोर्न साइटों पर पहले नम्बर पर ट्रेंड कर रहा था। कानपुर में चार नाबालिग लड़कों ने कथित रूप से 6 साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार किया था। रिपोर्टों के मुताबिक आरोपियों ने पोर्न वीडियो देखते हुए घटनाओं को अंजाम दिया था। जिन चीजों को हम बार-बार देखते हैं या जिन बातों को हम बार-बार सोचते हैं, वे हमारे मन, वचन और कर्म पर कुछ न कुछ प्रभाव तो अवश्य ही छोड़ती हैं।
यदि हम बलात्कार के आरोपियों पर नजर दौड़ाएं तो इनमें केवल गुंडे, ट्रक ड्राइवर, क्लीनर, आटो या रिक्शा चालक या अन्य असामाजिक तत्व ही शामिल नहीं, बल्कि साधु-संत, बाबा, पुलिस अफसर, वकील, जज, मंत्री, शिक्षक, डाक्टर, इंजीनियर, फिल्म अभिनेता, निर्देशक और प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता भी सजायाफ्ता रहे हैं। बलात्कार की मानसिकता किसी खास वर्ग, पेशे या शिक्षित, अशिक्षित होने से नहीं जुड़ी है। इसलिए इस समस्या को सभ्यता मूलक माना जाना चाहिए।
सबसे अहम बात तो यह है कि समाज का रूपांतरण कैसे किया जाए। यदि समाज का रूपांतरण नहीं किया गया तो हमें अपराधियों से भरे समाज में ही रहना होगा। याद रखिये कमरे के बलात्कारी या सड़क के बलात्कारी में कोई फर्क नहीं होता। आज बच्चियां सबसे ज्यादा अपने करीबियों से ही पीड़ित हैं। आने वाले दिनों में स्थितियां बहुत खराब हो सकती हैं। यौन विकृतियों से जुड़े मनोविकारों को आत्मानुशासन, मानसिक दृढ़ता, ध्यान या प्राणायाम के लगातार अभ्यास से ही समाप्त किया जा सकता है।
हमारे बच्चे क्या पढ़ते हैं, क्या देखते-सुनते हैं, क्या हमारे बच्चे किसी व्यसन का शिकार तो नहीं। इंटरनेट और सोशल मीडिया इत्यादि का विवेकपूर्ण और सुरक्षित ढंग से उपयोग सीखना होगा। काश! हम ऐसा कर पाएं, अन्यथा हर शहर महिलाओं के लिए असुरक्षित होते जाएंगे।