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विशेषज्ञ समिति का मान

उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त चार सदस्यीय कृषि विशेषज्ञ समिति के सदस्यों में से एक श्री भूपेन्द्र सिंह मान द्वारा इस समिति की पहली बैठक से कुछ समय पूर्व ही इस्तीफा दिये जाने से साफ हो गया है कि किसान आन्दोलन से जुड़े मुद्दे न्यायिक न होकर आर्थिक व राजनीतिक हैं।

उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त चार सदस्यीय कृषि विशेषज्ञ समिति के सदस्यों में से एक श्री भूपेन्द्र सिंह मान द्वारा इस समिति की पहली बैठक से कुछ समय पूर्व ही इस्तीफा दिये जाने से साफ हो गया है कि किसान आन्दोलन से जुड़े मुद्दे न्यायिक न होकर आर्थिक व राजनीतिक हैं। कुछ विशेषज्ञों के मत में सर्वोच्च न्यायालय ने तीन नये कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता पर गौर करने के बजाय आन्दोलन के सामाजिक पक्ष में हस्तक्षेप करके न्यायपालिका की भूमिका का विस्तार किया है, परन्तु श्री मान ने यह कहते हुए इस्तीफा दिया है कि वह किसानों के साथ हैं और पंजाब से अलग नहीं हैं। श्री मान राज्यसभा के भी हाल तक सदस्य रहे हैं और जानते हैं कि किसानों की असली मांग नये कानूनों को रद्द करने की ही है। यह तथ्य भी उनसे छिपा नहीं था कि किसानों ने इस समिति का विरोध किया था और इसके साथ किसी भी प्रकार का विचार-विमर्श करने से इन्कार कर दिया था। ऐसे माहौल में समिति की उपयोगिता पर ही सवालिया निशान लग रहा है अब श्री मान के स्थान पर न्यायालय यदि किसी अन्य सदस्य की नियुक्ति करता है तो उससे भी कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आयेगा। समिति का कार्य सरकार व किसान संगठनों से बात करना और किसी निष्कर्ष पर पहुंचना है और अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को पेश करना है, परन्तु मूल सवाल यह है कि मोदी सरकार इन कृषि कानूनों को नीतिगत तौर पर कृषि क्षेत्र में सुधार करने के लिए लाई है।
 किसी भी लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गई सरकार को संसदीय प्रणाली में संसद के माध्यम से नीतिगत फैसले करने का अधिकार होता है और नीतियों की समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय में नहीं होती है बल्कि फैसलों की होती है। लोक कल्याण के लिए हर पांच साल बाद बदलने वाली सरकारें अपनी नीतियों मे परिवर्तन करती रहती हैं। यह कार्य वह संसद में तत्सम्बन्धी फैसले करके ही करती हैं। जाहिर है किसी भी सरकार की कोई भी नीति संविधान के दायरे में ही हो सकती है अतः इस सम्बन्ध में किये गये फैसले न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ जाते हैं। कृषि कानूनों के बारे में भी ऐसा ही है जिसकी वजह से इन्हें सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। अतः सरकार जो नये कानून लाई है वह उसकी नई कृषि नीति के अनुरूप हैं और वह मानती है कि इनके लागू होने से देश के कृषि क्षेत्र की दशा बदलेगी, उसमें निजी निवेश आने से किसानों की माली हालत बेहतर होगी और गांवों में कृषि जन्य  औद्योगीकरण का नया दौर शुरू होगा जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी सृजन होगा।
 संयोग से नवगठित समिति के चारों सदस्यों की राय कृषि क्षेत्र के विकास के बारे में ऐसी ही रही है जो आंदोलनकारी किसानों के नजरिये से पूरी तरह उलट है क्योंकि देश के अधिसंख्य किसान संगठन मानते हैं कि नये कानूनों की मार्फत कार्पोरेट व व्यापारी जगत किसानों का तेजी से शोषण करेगा और उनकी उपज को फसल के मौके पर औने-पौने दामों में खरीद कर बाद में ऊंची दरों पर बेच कर भारी मुनाफा कमायेगा। नये कानून के अनुसार उपज के भंडारण की कोई सीमा नहीं रहेगी जिसकी वजह से व्यापारी वर्ग नई फसल आने पर अपने गोदामों में भरा हुआ माल बाजार में लाकर किसान की उपज का मूल्य नीचे रखने में सफल रहेगा। इसी वजह से किसानों की मुख्य मांग यह भी है कि उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य संवैधानिक दायरे में आये और इसे नीचे भाव पर उपज खरीदने वाले के लिए दंड का प्रावधान हो। इस पूरे मामले में कानूनी नुक्ता यह है कि कृषि राज्यों का अधिकार है।
 कृषि उपज विपणन भी इसी दायरे में आता है, किन्तु व्यापार व वाणिज्य केन्द्र की सूची का विषय है।  मौजूदा कृषि कानूनों के तहत भी खेतों में पैदा होने वाली उपज एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।  इस बारे में पहले ही संसद कानून में संशोधन कर चुकी है। किसानों पर भी यह प्रतिबन्ध नहीं है कि वे केवल अपना सामान कृषि मंडियों में बेचेंगे। अधिसंख्य किसान अपनी नकद फसलें आज भी वहीं बेचते हैं जहां उन्हें ज्यादा दाम मिलते हैं। सवाल उठना वाजिब है कि फिर दिक्कत कहां है?  असल दिक्कत कृषि क्षेत्र में निवेश की है। अभी तक विभिन्न सरकारें ही यह भूमिका निभाती आ रही हैं मगर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन आया है जिसकी वजह से यह समस्या खड़ी हुई है। अतः समस्या का जो भी निदान निकलेगा वह किसानों को पूर्ण विश्वास में लेने से ही निकलेगा। इस विश्वास को पैदा करना ही सबसे बड़ी चुनौती है।

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