भारत में सेना के कारनामों या इसकी संरचनात्मक प्रणाली से जुड़े किसी भी विषय को चुनावी मैदान में भुनाने की परंपरा कभी नहीं रही और किसी भी राजनैतिक दल या उसके नेता ने एेसी गुस्ताखी कभी नहीं की जिससे भारतीय फौज के किसी अफसर तक की किसी कार्रवाई को मतदाताओं को प्रभावित करने में प्रयोग किया जा सके परन्तु पिछले कुछ समय से हम यह विसंगति भारतीय राजनीति में देख रहे हैं कि सेना को राजनीतिक हित साधने के लिए प्रयोग करने की कार्रवाइयां न केवल बढ़ रही हैं बल्कि पूरी बेहयाई के साथ सैनिक कार्रवाइयों का राजनीतिकरण किया जा रहा है। वोटों की खातिर एेसा करके हम आग से खेलने का काम कर रहे हैं औऱ अपनी सेना के पूरी तरह अराजनैतिक व गैर राजनीतिक चरित्र को संशय के घेरे में लाने का प्रयास कर रहे हैं। कर्नाटक के चुनावों में जिस तरह भारत के दो पूर्व सेना अध्यक्षाें जनरल थिमैया व फील्ड मार्शल करिअप्पा का नाम घसीटने की कोशिश की गई उसका समर्थन कोई भी लाकतान्त्रिक संगठन नहीं कर सकता। सेना के कमांडर किसी राजनीतिक दल की सरकार द्वारा नियुक्त सिपहसालार नहीं होते बल्कि वे ‘भारत की सरकार’ द्वारा नियुक्त सेनापति होते हैं जिनका राजनीति से किसी प्रकार का कोई लेना–देना नहीं होता।
जनरल करिअप्पा को फील्ड मार्शल की मानद उपाधि से कांग्रेस के प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गांधी की सरकार ने ही अलंकृत किया था वह भी जनरल के औहदे से लगभग 28 वर्ष बाद सेवानिवृत्त होने पर यह कार्य इस हकीकत के बावजूद किया गया था कि रिटायर होने के बाद जनरल करिआप्पा राजनीति में सक्रिय रहे थे और 1957 में उन्होंने मुम्बई से देश के तत्कालीन रक्षामन्त्री स्व. वी. के. कृष्णामेनन के खिलाफ लोकसभा चुनाव भी लड़ा था जो वह भारी मतों से हार गये थे। इतना ही नहीं करिअप्पा ने आचार्य कृपलानी के खिलाफ भी चुनाव लड़ा था जो वह हारे और बाद में 1971 में उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी की कांग्रेस के खिलाफ भी मोर्चा खोला जिसमें वह बुरी तरह असफल रहे, मगर उनकी इन राजनैतिक गतिविधियों को कांग्रेस की केन्द्र सरकारों ने कभी भी राष्ट्रीय हितों के खिलाफ नहीं माना और 1986 में उन्हें फील्ड मार्शल के औहदे पर पूरे सैनिक सम्मान के साथ बिठाया। यह कार्य केन्द्र में प्रधानमन्त्री के तौर पर स्व. राजीव गांधी ने किया था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि फील्ड मार्शल करिअप्पा और जनरल थिमैया कर्नाटक के मूल निवासी थे। उन्हें किसी राज्य के घेरे में बांध कर हम भारतीय सेना की समग्र एकीकृत शक्ति को टुकड़ों में बांटने की गलती कर जाते हैं और खुद के छोटा होने का प्रमाण देते हैं। इसी प्रकार जनरल थिमैया ने चीन के सन्दर्भ में जो विचार व्यक्ति किये थे उनसे राजनीतिक नेतृत्व का सहमत होना जरूरी नहीं था क्योंकि भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत सेना की विशिष्ट जिम्मेदारी सीमाओं की 24 घंटे सुरक्षा और चौकसी होती है।
अतः तत्कालीन प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू जैसे विशाल व्यक्तित्व की दूरदृष्टि को सामरिक तराजू में तोलना किसी भी तौर पर न्यायोचित नहीं हो सकता। नेहरू की शख्सियत का अन्दाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1962 में चीन की फौजें जब भारत के असम के तेजपुर तक बढ़ गई थीं तो उनकी वापसी अकेले पं.नेहरू के व्यक्तित्व के उस तेज के कारण ही हो सकी थी जिसे तब दुनिया के तमाम प्रभावशाली मुल्कों ने स्वीकार किया था और चीन को वापस अपनी सीमाओं पर लौटने की हिदायत दी थी। यह सब इस हकीकत के बावजूद था कि भारत तब सैनिक शक्ति में चीन के मुकाबले बहुत हल्का साबित हो गया था परन्तु अकेले नेहरू का वजन चीन के नेता माओ त्से तुंग और चाऊ एन. लाई पर इस कदर भारी पड़ा था कि पूरा राष्ट्र संघ भारत के हक में आकर खड़ा हो गया था। हम क्यों भूल जाते हैं कि प. नेहरू के देश के प्रधानमन्त्री रहते पाकिस्तान की एक बार भी हिम्मत नहीं हुई कि वह भारत की सीमाओं का अतिक्रमण कर सके। अतः यह कहना कि पं नेहरू जैसा महान दूरदृष्टा राजनेता सैनिक जरूरतों से वाकिफ नहीं था या सैनिक तैयारियों का फिक्रमन्द नहीं था पूरी तरह राष्ट्र विरोधी विचार होगा। हम अपने राष्ट्र नायकों को इस तरह अपमानित नहीं कर सकते और जो देश अपने एेतिहासिक महानायकों को छोटा करके देखने की गलती करता है वह गलत रास्ते की तरफ बढ़ जाता है।
अपने सेनानायकों के अपने समय में किये गये निर्णयों को राजनीति के रंग में रंग कर देखना उनके साथ भी अन्याय करना होगा क्योंकि उनकी भावना हमेशा भारत की लोकतान्त्रिक सत्ता और संविधान के प्रति पूरी आस्था से भरी हुई थी। यदि एेसा न होता तो मनमोहन सिंह शासन के दौरान पाकिस्तानी सीमा में घुस कर की गई कई बार सैनिक कार्रवाई का प्रचार सेना ने किया होता। मगर सेना ने अपनी तरफ से कभी कोई पहल नहीं की, सबसे बड़ा प्रमाण तो 1971 में बंगलादेश युद्ध का है जिसमें भारतीय फौज ने तब ही हुंकार भरी जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जनरल मानेकशा को हरी झंडी देकर कहा कि अब आर–पार की लड़ाई का एेलान कर दो और बंगलादेश को स्वतन्त्र कराओ। केवल 14 दिनों की सैनिक कार्रवाई में भारतीय फौजों ने वह कमाल कर दिखाया जो दुनिया की फौजी कार्रवाइयों की बेमिसाल नजीर है। इस कार्रवाई को अंजाम देने वाले जनरल मानेकशा को देश का पहला फील्ड मार्शल भी इंदिरा गांधी ने ही बनाया। मगर क्या हम इसे सेना के सिपहसालार मानेकशा के राज्य, क्षेत्र या किसी और पहचान के दायरे में देखेंगे ? यह भारत की सेनाओं का सम्मान था। इसका राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास क्या कभी कोई लेने की जुर्रत कर सकता है। मगर क्या जमाना आ गया है कि हम हिमाचल में चुनावी माहौल में जब जाते हैं तो कह आते हैं कि पाकिस्तान की फौज ने हिमाचली सैनिकों को मारा या मेरे मौला रहम। इस मुल्क की फौज पर अपनी रहमतों का दरवाजा हमेशा खुला रखना। क्योंकि
कोई सिख कोई जाट मराठा कोई गुरखा कोई मद्रासी
सरहद पर मरने वाला हर वीर था भारतवासी