हमारे देश में कई बार कुछ मुद्दों को लेकर ऐसा वातावरण सृजित किया जाता है जिससे आशंकाएं गहरी हो जाती हैं। लोग सड़कों पर आकर विरोध-प्रदर्शन करने लगते हैं। हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ या फिर सड़कों पर लम्बे धरने-प्रदर्शन देखने को मिलते हैं। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को लेकर पिछले वर्ष देश भर में बवाल मचा और असम, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक में हिंसा में कई लोगों की जानें भी गईं। दिल्ली में सीएए के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन का केन्द्र शाहीन बाग बना था और शांतिपूर्ण धरने में शामिल दादी को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता भी मिली। वह कानून अभी तक लागू ही नहीं हो पाया। यदि कानूनों की सम्भावनाओं और आशंकाओं को लेकर आंदोलन होने लगें तो फिर देश को कानूनों से चलाना मुश्किल हो जाएगा।
नागरिकता संशोधन कानून के नियमो और उपबंधों को ही तैयार करने में अभी पांच-छह महीने और लग सकते हैं। संसद से पास कराए गए इस कानून को लागू करने में एक वर्ष से ज्यादा की देरी हो चुकी है। यह देरी इसलिए हुई कि किसी कानून को लागू करने के लिए नियम और उपबंध तय किए जाते हैं जो अभी तक तैयार ही नहीं हुए। जहां तक एनआरसी का सवाल है, उस पर सरकार ने कह दिया है कि उसे पूरे देश में लागू किए जाने का फैसला अभी तक नहीं लिया गया। कहा जाता रहा है कि सीएए और एनआरसी आपस में जुड़े हैं और सीएए के बाद एनआरसी लागू किया जाएगा। इसी वजह से इस पर काफी विवाद हुआ था। इस कानून के नियम और उपबंध तैयार करने के लिए लोकसभा समिति ने सरकार को 9 अप्रैल तक का समय दिया है, वही राज्यसभा के पैनल ने 9 जुलाई तक की सीमा बढ़ा दी है। संसद के नियमों के अनुसार कानून बनाने के 6 माह के भीतर ये नियम बन जाने चाहिए थे। वास्तव में सरकार ने सीएए में पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से हिन्दू, जैन, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध समुदायों से संबंधित अवैध प्रवासियों के लिए नागरिकता काे आसान बनाया है।
एनआरसी को लेकर भी सरकार सफाई देती रही लेकिन इसके बावजूद एक विशेष समुदाय के लोगों में आशंकाएं बैठ गईं कि एनआरसी के तहत जिनके पास कागज नहीं होंगे उन्हें देश से बाहर निकाला जाएगा और बाकी सबको नागरिकता मिल जाएगी लेकिन मुसलमानों को नहीं मिलेगी। एनआरसी के साथ एनपीआर यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के प्रति भी आशंकाएं व्यक्त की गईं। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी बार-बार कहा कि एनपीआर का एनआरसी से कोई संबंध नहीं। दोनों ही अलग-अलग कानूनों से संचालित होते हैं। सीएए और एनआरसी दोनों ही असम और पश्चिम बंगाल के लिए काफी संवेदनशील मुद्दा है। असम में अवैध बंगलादेशियों का मुद्दा हमेशा ही काफी महत्वपूर्ण रहा है और इसी मुद्दे पर असम में बड़े आंदोलन भी हो चुके हैं। असम में एनआरसी लागू किया गया ताकि घुसपैठियों की पहचान की जा सके। एनपीआर के तहत देश के नागरिकों की सूची तैयार की जाती है, जिसमें उनसे संबंधित जानकारियां भी होती हैं। पिछले वर्ष नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ आंदोलन के बीच कांग्रेस सांसद आनंद शर्मा की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थाई समिति ने कहा था कि एनपीआर और जनगणना को लेकर लोगों में बहुत असंतोष और भय है। इस भय को दूर करने के लिए समिति ने कुछ सुझाव भी दिए थे। सरकार ने समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई भी की, उसका ब्यौरा राज्यसभा में पेश भी किया गया। अब जबकि एनआरसी पर कोई फैसला ही नहीं लिया गया तो असम और पश्चिम बंगाल के चुनावों में इस मुद्दे की हवा निकल चुकी है। कोरोना महामारी के चलते एनपीआर के नवीनीकरण के प्रथम चरण और इससे संबंधित अन्य गतिविधियों को अगले आदेश तक टाल दिया है।
यह भी बड़ा आश्चर्यजनक है कि जिस कानून का स्वरूप ही सामने नहीं आया तो फिर देश में तूफान क्यों मचा। सरकार ने भी विरोध को देखते हुए अपनी योजना को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। सरकार को कानूनों को लेकर लोगों को समझाने की जरूरत है। सरकार भी काफी सतर्क होकर चल रही है। नागरिकता संशोधन कानून किसी की नागरिकता को वंचित कर देने वाला नहीं है, बल्कि भारत में शरण लिए बैठे हिन्दुओ, सीखो को नागरिकता प्रदान करने के लिए है ताकि वह सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें और सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश मुस्लिम राष्ट्र है तो वहां बहुसंख्यक मुस्लिम हैं। इसलिए इन देशों के नागरिकों को भारत में शरण देने का सवाल ही नहीं। कई मामलों में भारत ने मुस्लिमों को भी नागरिकता प्रदान की है। जैसे अदनान सामी जैसे प्रतिष्ठित गायक काे भारत की नागरिकता दी है। सीएए, एनआरसी को लेकर भ्रम का वातावरण बनाया गया, वह अब दूर हो जाना चाहिए।