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कृषि कानूनों पर उलझन खत्म

संसद के दोनों सदनों में आज तीनों कृषि कानून जिस तरह रद्द किये गये उसे लेकर विपक्षी पार्टियों को भारी एतराज हो सकता है मगर यह हकीकत है कि अब इन तीनों कानूनों का कोई अस्तित्व नहीं रहा है।

संसद के दोनों सदनों में आज तीनों कृषि कानून जिस तरह रद्द किये गये उसे लेकर विपक्षी पार्टियों को भारी एतराज हो सकता है मगर यह हकीकत है कि अब इन तीनों कानूनों का कोई अस्तित्व नहीं रहा है। इससे यह सवाल उठना वाजिब है कि किसानों के आन्दोलन का भी अब कोई कारण नहीं बचा है। मगर विपक्षी दलों का कहना है कि इस आन्दोलन के दौरान उपजी किसानों की अन्य मांगों पर भी विचार किया जाना चाहिए। यदि इस तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाये तो इसके लिए किसान आन्दोलन की वजह को उचित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जो भी मसले आन्दोलन के दौरान उठे हैं उनका किसानों की मूल मांगों से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। यह सत्य है कि चालू वर्ष के शुरू में जब किसानों की देश के कृषि मन्त्री नरेन्द्र सिंह तोमर से बातचीत हुई थी तो उसमे  उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की मांग रखी थी मगर यह मांग तीनों कृषि कानूनों को वैध बनाने के खिलाफ उपजे आन्दोलन के दौरान ही पैदा हुई थी। मगर आन्दोलन के दौरान ही किसानों ने इस मुद्दे पर जो रुख अख्तियार किया था वह अपने आन्दोलन को राजनैतिक समर्थन पाने की गरज से किया था। क्योंकि आजादी के बाद अब देश में जितने भी प्रमुख राजनैतिक दल हैं वे सभी किसी न किसी समय सत्ता में भागीदार रहे हैं। यहां तक कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता स्व. इन्द्रजीत गुप्ता भी 1996 से 1998 तक एच.डी. देवगौड़ा व इन्द्रकुमार गुजराल की सरकारों में गृहमन्त्री रहे थे। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता श्री शरद पवार 2004 से 2014 तक लगातार देश के कृषि मन्त्री रहे जो कि वर्तमान में कृषि क्षेत्र के सबसे बड़े विशेषज्ञ राजनीतिज्ञ माने जाते हैं। मगर इससे भी ऊपर एक तथ्य मैं आन्दोलनकारी किसानों के ध्यान में लाना चाहता हूं कि 1996 से 1998 के दौरान ही देवगौड़ा व गुजराल की सरकारों में कृषि मन्त्री का पदभार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता श्री चतुरानन मिश्रा ही संभाले हुए थे। फिलहाल जारी किसान आन्दोलन को इस पार्टी का पूरा समर्थन प्राप्त है। श्री मिश्रा के कृषि मन्त्री रहते यह विवाद खड़ा हुआ था कि सरकार विदेशों से अनाज आयात करके भारी धन खर्च कर रही है जबकि भारतीय किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं। उस समय तर्क दिया गया था कि देश में अनाज की कीमतों को नियन्त्रित करने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया है। जाहिर है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी देश में खेतीहर कामगारों व मजदूरों की पार्टी मानी जाती है मगर उसने भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बनाने के बारे में विचार नहीं किया। इसी प्रकार श्री पवार लगातार दस वर्ष कृषि मन्त्री रहे मगर उन्होंने भी इस बारे में कोई विचार नहीं किया। इसके लिए न तो श्री पवार को और न ही स्व. मिश्रा को दोष दिया जा सकता है क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक अधिकार बनाना भारत जैसे भौगोलिक विविधतापूर्ण देश में पूरी तरह अव्यावहारिक व मूर्खतापूर्ण है। श्री पवार ने कृषि क्षेत्र को लेकर कई संशोधन किये और कृषि उपज मंडियों में सुधार के लिए कदम उठाये मगर भारत की जमीनी हकीकत को दरकिनार नहीं होने दिया। उनके द्वारा किया गया सबसे बड़ा सुधार कृषि उत्पाद विपणन (एपीएमसी एक्ट) को लेकर था। इसका लाभ विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने हिसाब से अपने राज्यों के किसानों को दे रही हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने की व्यवस्था कुछ उपजों में वर्तमान में भी जारी है। इनमें सबसे ऊपर गन्ना किसान हैं जिनका 90 प्रतिशत तक गन्ना बड़ी चीनी मिलों को जाता है और वहां से उन्हें समर्थन मूल्य प्राप्त होता है। इसी प्रकार गेहूं, चावल, जौ आदि में भी सरकारी एजेंसियां खरीद में भागीदारी करके बाजार में समर्थन मूल्य को टिकाये रखती हैं। भारत में कुल 365 किस्म की उपज होती है जो विभिन्न राज्यों की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने कृषि को राज्य सूची में रखा था जिससे प्रादेशिक सरकारें अपने-अपने राज्यों के किसानों की फसलों और उनकी दिक्कतों को देखते हुए आवश्यकतानुसार यथा समय कारगर कदम उठा सकें। कालान्तर में  कृषि उपजों के एक राज्य से दूसरे राज्य में लाये- ले जाने के नियम भी इस प्रकार बदले गये कि किसी भी राज्य में आवश्यक जीवनोपयोगी खाद्यान्न की कमी न हो सके और किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य भी मिलता रहे। यह बाजार व्यवस्था इस वजह से कारगर है क्योंकि सरकार कुल 23 उपजों पर समर्थन मूल्य की घोषणा करती है, यदि वह स्वयं इन उपजों के कुल उत्पादन की खरीद करे तो इस पर ही 38 लाख करोड़ रुपयेे की लागत आयेगी जबकि चालू वर्ष का साल का पूरा सरकारी बजट ही तीस लाख करोड़ से नीचे का है। अतः कोई भी सरकार अंधेरे में लट्ठ नहीं घुमा सकती है। इस हकीकत को आंदोलनकारी किसान न जानते हों ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि ये स्वयं मंडी व्यवस्था को जारी रखने का समर्थन कर रहे हैं। इस व्यवस्था के बीच नये कृषि कानूनों के जरिये जो समानान्तर विपणन प्रणाली खड़ी की जा रही थी उसका कानून रद्द हो जाने के बाद प्रश्न ही नहीं उठता, अतः एपीएमसी कानून के अनुसार किसान स्वयं सहकारी स्तर पर अपनी कृषि मंडियां स्थापित कर सकते हैं और अपनी उपज के दाम भी अपनी लागत को देखते हुए तय कर सकते हैं। इस कानून के तहत तो जल्दी ही खराब होने वाली साग-सब्जियों व फलों के नकद दाम भी किसान उचित मूल्य पर प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार हम डेयरी उत्पादों की कीमतों को भी देखते हैं, इस क्षेत्र में सहकारी संगठनों व निजी क्षेत्र के आने के बाद दुग्ध उत्पादक किसानों को लाभकारी मूल्य मिल रहा है। अतः समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की मांग सिवाय राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के अलावा और कुछ नहीं है। जहां तक संसद के भीतर कानूनों की वापसी को लेकर किसी बहस का न होना है तो संसदीय परंपराओं को देखते हुए यदि इस मुद्दे पर बहस होती तो यह बेहतर होता क्योंकि इससे दोनों पक्षों को अपना-अपना मत खुले रूप से रखने में मदद मिलती और आम जनता को पता लगता है कि कृषि क्षेत्र की वास्तविक समस्याएं आने वाले भविष्य में क्या हो सकती हैं।

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