चुनावी खर्च सीमा का पालन भी जरूरी - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चुनावी खर्च सीमा का पालन भी जरूरी

भारत के चुनाव आयोग ने प्रत्यक्ष रूप से तो अपना काम गति से, नीति से, नियमानुसार प्रारंभ कर दिया है। पहली बार चुनाव आयोग का नाम तब आम जनता तक आया जब श्री शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त थे। शेषन के नाम से राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता डरते थे। रात के जलसे, जुलूस समय पर समाप्त कर देते थे। अप्रत्यक्ष रूप में नोट उड़ाने में अर्थात बहुत खुला खर्च करने में संकोच करते थे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसा लगा कि कुछ जलसे-जुलूसों पर प्रतिबंध लग गया और समय सीमा का भी ध्यान रखा जाने लगा, पर यह चुनावी रण योद्धा अप्रत्यक्ष रूप में धन खर्च करते हैं, इस पर चुनाव आयोग का शिकंजा कभी नहीं कसा गया। नियम तो यह है कि चुनाव के पश्चात तीस दिनों में चुनाव आयोग को सारे खर्च का विवरण देना होता है, दिया भी जाता है। चुनाव आयोग ने शायद ही एक प्रतिशत उम्मीदवारों को भी अधिक खर्च करने का दोषी पाया हो या उन पर कार्यवाही की गई हो।
1952 में पहली बार संसद के प्रत्याशी के लिए खर्च सीमा पच्चीस हजार रुपये तय की गई थी। इसका कारण यह था कि तब शायद चाय का कप भी दो या चार आने में मिलता था। महंगाई बढ़ी और चुनाव में खर्च की सीमा एक लाख रुपये तक बढ़ा दी गई जो आज धीरे-धीरे चुनाव आयोग की आज्ञा के अनुसार एक प्रत्याशी 95 लाख रुपये खर्च कर सकेगा। वैसे महंगाई के अनुसार और मतदाताओं की बढ़ी हुई संख्या के अनुपात में 95 लाख चुनाव आयोग को अधिक न लगे हों, पर हिंदुस्तान के राजनेताओं या बड़े-बड़े पूंजीपतियों को छोड़कर 95 लाख रुपये तो अधिकतर भारतीयों ने देखे भी नहीं। पूरा जीवन मेहनत करके इतना रुपया कमाने वाले थोड़े ही भाग्यशाली हैं।
इसका एक अर्थ तो यह है कि जिसके पास करोड़ों रुपये नहीं हैं वह चुनाव लड़ ही नहीं सकता। 17वीं लोकसभा में भी पांच प्रतिशत सदस्य तो अरबपति रहे और करोड़पति सैकड़ों में हैं। जो लोग भी चुनावी प्रक्रिया से परिचित हैं या चुनाव कार्य में भागीदार हैं वे जानते हैं कि चुनावी खर्च की जो जानकारी योग्य लेखाकारों से तैयार करवाकर चुनाव आयोग को दी जाती है वह मेरे विचार अनुसार 95 प्रतिशत से ज्यादा सही नहीं। चुनाव आयोग ने चाय-समोसे की कीमत तय कर दी। भठूरे-छोले के भी रेट तय किए। इडली, सांबर, डोसा खिलाने पर भी कितना खर्च किया है उसका लेखा चुनाव आयोग लेगा, क्योंकि इनकी कीमत भी चुनाव आयोग ने ही तय की है। वैसे यह सच है कि उत्तर भारत के राज्यों में उस कीमत पर डोसा नहीं मिलता, जो चुनाव आयोग ने लिखा है। झंडे और डंडों की बात भी दिल्ली के कार्यालय में बैठे चुनाव आयुक्तों ने निश्चित की है, पर उसकी बात नहीं की जो करोड़ों रुपयों के बैनर, होर्डिंग्स, इश्तेहार, इलेक्ट्रानिक मीडिया पर विज्ञापन सभी राजनीतिक दलों के उम्मीदवार और बड़ी-बड़ी पार्टियों के राष्ट्रीय कार्यालयों से जारी किए जाते हैं।
चुनाव आयोग के जो पर्यवेक्षक हर जिले में भेजे जाते हैं हर उम्मीदवार के क्षेत्र में निगरानी करने के लिए आते हैं। वह यह निगरानी कभी नहीं करते कि कितने नोट बांटे जाते हैं। कितनी शराब पिलाई जाती है। कितनी साड़ियां, सूट, टीबी, कभी-कभी दोपहिया वाहन दिए जाते हैं। अगर ये पर्यवेक्षक पूरा खर्च देखना चाहे तो शराब बनाने वाली कंपनियों पर निगाह रखे कि इन दो महीनों में कितनी शराब बिकती है और किस- किस ने खरीदी है, पर ऐसा कुछ नहीं होता। चुनाव आयोग यह जानकारी दे कि आज तक कितने उम्मीदवारों को निश्चित सीमा से ज्यादा खर्च करने पर दंडित किया गया है या उनका चुनाव रद हुआ है या उन पर भविष्य में कुछ निश्चित सीमा तक चुनाव लड़ने से रोका गया। आवश्यकता तो यह है कि पर्यवेक्षकों के उपर भी एक पर्यवेक्षक लगाया जाए। किस किस होटल में ये रहते हैं। कितने अधिकारी परिवारों समेत इस पर्यवेक्षण कार्य को पर्यटन का हिस्सा बना लेते हैं। वैसे पर्यवेक्षक के रूप में काम कर रहा कोई भी अधिकारी परिवार को साथ नहीं ले जा सकता।
यह भी बताया गया है कि 28 निवर्तमान सांसदों ने चुनावी शपथ पत्र में यह स्वीकार किया है कि उनके विरुद्ध हत्या प्रयास से जुड़े मामले दर्ज हैं। इसी प्रकार निवर्तमान 16 सांसद महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े आरोपों का सामना कर रहे हैं। जिनमें से तीन के खिलाफ बलात्कार के आरोप हैं। इन सबको जानने के बाद प्रश्न यह पैदा होता है कि चुनाव आयोग के पास जितने अधिकार हैं, जितनी शक्तियां हैं क्या वे अधूरी हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि बिना दांत और नाखून के शेर की तरह हमारा चुनाव आयोग है? चुनाव आयोग पूर्ण शक्ति संपन्न है, यह काम दो आंखों से नहीं, सौ आंखों से हमारे चुनावी पर्यवेक्षकों को करना चाहिए। क्या इसे लोकतंत्र का दुर्भाग्य न कहा जाए कि जिन लोगों पर कई प्रकार के अपराधों के आरोप लगे हैं वे चुनाव लड़ सकते हैं। जेल में बंद भी चार-चार चुनाव लड़ते और जीतते हैं। जो आरोप वर्तमान संसद के 44 प्रतिशत सांसदों पर लगे हैं, किसी आम व्यक्ति पर लगे हों तो कोई उसे चपरासी की नौकरी भी नहीं देगा, सरकार भी नहीं।
अपने घरों व व्यापारियों संस्थाओं में प्राइवेट नौकरी भी नहीं दी जा सकती। कर्मचारी सरकारी सेवा में जाने के बाद आरोपित हो जाए तो उसे निलंबित रखा जाता है। क्या मजबूरी है देश के लोकतंत्र की, सरकारों की, चुनाव आयोग की कि गंभीर आरोपों के आरोपी भी चुनाव लड़कर संसद में पहुंचते हैं और 95 लाख खर्च की सीमा की धज्जियां उड़ाते हुए करोड़ों खर्च करेंगे, खर्च करते हैं। फिर भी उनके चुनावी आर्थिक विवरण चुनाव आयोग द्वारा स्वीकार कर लिए जाते हैं। चुनाव आयोग खर्च की सीमा तय करता है, अच्छी है पर उनको सही से लागू करवाना भी तो चुनाव आयोग का ही दायित्व है।

– लक्ष्मीकांता चावला

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

seventeen − three =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।