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मध्य वर्ग के महानायक ‘मनमोहन सिंह’

डा. मनमोहन सिंह को कुछ लोग महानायक मान सकते हैं और कुछ लोग भारत की पूर्व निर्धारित आर्थिक नीतियों से अलग करने वाला एेसा व्यक्ति जिसने कांग्रेस की पूरी विरासत की धारा पलट कर रख दी और लोग नेहरू युग की आलोचना कोसने की हद तक करने लगे परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि नेहरू और इन्दिरा युग के दौरान भारत की आबादी का 30 प्रतिशत से अधिक जो वर्ग मध्यम वर्ग बना था उसके लिए वह महान हीरो थे। डा. मनमोहन सिंह के प्रथम वित्त मन्त्री काल की आलोचना इस बात के लिए जरूर हो सकती है कि उन्होंने इस दौरान कृषि क्षेत्र की पूरी तरह उपेक्षा की और इसे एक मायने में लावरिस बना कर छोड़ दिया मगर उन्होंने जो आर्थिक सुधार किये उससे स्वतन्त्र भारत में पूंजी परक व पूंजीवादी नीतियों का एेसा झोंका आय़ा जिसने मध्यम आय वर्ग के लोगों के लिए उत्पादों की झड़ी लगा दी और आवश्यक सेवाओं को उपभोक्ता सेवा बना डाला। इन अर्थों में उनके राजनीतिक जीवन काल को एक युग के रूप में जाना जा सकता है क्योंकि दुनिया के लिए भारत को उत्पादन का हब या केन्द्र बनाने की शुरुआत उनके ही प्रधानमन्त्रित्व काल में हुई और विदेशी निवेश की महत्ता का भान भी भारत के आम लोगों को इसी वजह से हुआ।
भारत के बाजारों को दुनिया की महारथी कम्पनियों के लिए खोलना कोई आसान निर्णय नहीं था परन्तु पी.वी. नरसिम्हा राव के मन्त्रिमंडल में वित्त मन्त्री रहते हुए उन्होंने यह काम जिस सरलता के साथ किया वह अद्भुत था। मूल रूप से राजनीतिज्ञ न होते हुए भी मनमोहन सिंह 1991 से 1996 के बीच जिस प्रकार से आर्थिक निर्णय ले रहे थे उनका राजनीति पर प्रभाव पड़ना निश्चित था। वस्तुतः मनमोहन सिंह कांग्रेस की विचारधारा के पूरी तरह विपरीत निर्णय ले रहे थे और सारे निर्णयों को उस समय चल रही भुगतान सन्तुलन की समस्या के साये में खड़ा कर रहे थे।
भारत के पास तब विदेशी मुद्रा का भंडार बहुत सीमित रह गया था और कुछ सप्ताहों की निर्यात जरूरतें ही उनसे पूरी हो सकती थीं। एेसा नहीं है कि भुगतान सन्तुलन की समस्या भारत पहली बार झेल रहा था। इससे पहले 1965 के भारत- पाकिस्तान युद्ध के बाद जनवरी 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमन्त्री बनी थीं तो युद्ध की विभीषिका से निकले भारत की आर्थिक स्थिति पूर्णतः जर्जर हो चुकी थी और इसके पास केवल तीन सप्ताहों की निर्यात जरूरतों की भरपाई करने लायक ही विदेशी मुद्रा भंडार था। उस समय अमेरिका ने इंदिरा जी पर अपने बाजार विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने हेतु बहुत दबाव डाला था मगर वह झुकी नहीं थीं और उन्होंने इसका तोड़ ढूंढते हुए स्वतन्त्र भारत में पहली बार रुपये का अवमूल्यन किया था और डालर का भाव चार रुपये से बढ़ा कर सात रुपये कर दिया था मगर विदेशी कम्पनियों को उन्होंने भारत आने की इजाजत नहीं दी थी। मगर तब के विपक्षी दलों स्वतन्त्र पार्टी व भारतीय जनसंघ ने इन्दिरा जी की बहुत तीखी आलोचना रुपये के अवमूल्यन के लिए की थी। इसके प्रमाण में तब के विपक्षी नेता स्वतन्त्र पार्टी के मीनू मसानी व आचार्य एन.जी. रंगा व जनसंघ के नेता बलराज मधोक के बयान देखे जा सकते हैं।
डा. मनमोहन सिंह ने भी भुगतान सन्तुलन की समस्या से निजात पाने के लिए पहला काम रुपये का अवमूल्यन किया और इसे खुले बाजार की ताकतों पर छोड़ दिया। तब डालर का भाव एकदम सात रुपये से 17 रुपये हो गया था परन्तु इस बार राजनैतिक फिजाओं में मूलभूत अंतर था। देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी डा. मनमोहन सिंह की तारीफ कर रही थी। इसकी असली वजह यह थी कि डा. मनमोहन सिंह 1991 में भारतीय जनसंघ के 1951 में लिखे घोषणापत्र के अनुसार आर्थिक नीतियां लागू कर रहे थे क्योंकि यह घोषणापत्र बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की वकालत करता है।
संयोग से तत्कालीन प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिम्हा राव भी कांग्रेस की मूल नेहरूवादी अर्थनीतियों के समर्थक नहीं थे और वह भारत में विदेशी निवेश की गाथा को लालकिले से सुना रहे थे। विदेशी निवेश को अपने कार्यकाल के दौरान नरसिम्हा राव ने ‘राग देश’ बना दिया था जिसे हर भारतीय कोतूहल से सुन रहा था।
मनमोहन सिंह को कांग्रेस की मूल नीतियों पर वापस लौटने के लिए भी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती गांधी ने मजबूर किया उनके कार्यकाल के तीन वर्ष में भोजन का अधिकार जैसा कानून पारित कराया। इसके साथ ही भारत में लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिए सूचना का अधिकार का भी कानून बनाया गया। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जिस तरह टैक्नोलॉजी को आम जनजीवन का हिस्सा बनाने की शुरुआत की गई और शिक्षा को मौलिक अधिकारों में जोड़ा गया वह भी इसी बात का प्रमाण माने जा सकते हैं कि डा. मनमोहन सिंह पूंजीवाद से ऊपजी राजनीति के दुष्प्रभावों से परिचित होने लगे थे और कांंग्रेस की मूल विचारधारा की तरफ लौटने के लिए प्रय़ासरत थे। इस मामले में अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार का जिक्र किया जाना बहुत जरूरी है।
मनमोहन सरकार की इसे महान उपलब्धि कहा जा सकता है क्योंकि इस समझौते ने भारत के वे बन्धन खोल दिये जिनकी वजह से वह सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद स्वयं को एक कोने में खड़ा हुआ देख रहा था। यह समझौता कोई साधरण समझौता नहीं था क्योंकि इसके लिए अमेरिका को अपने संविधान में संशोधन करना पड़ा था। वास्तव में इसके लिए डा. मनमोहन सिंह को नोबल पुरस्कार मिलना चाहिए था क्योंकि यह केवल भारत की ही नहीं बल्कि समस्त तीसरी दुनिया के देशों की महाविजय थी जिसका लक्ष्य पूर्णतः शान्ति था लेकिन इसके बावजूद कि उनकी आर्थिक नीतियों की वजह से उनके शासन के दौरान 2005 से 2015 के बीच 27 करोड़ भारतीय गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर आये, मनमोहन सिंह भारत के गरीबों के हीरो कभी नहीं रहे।
डा. मनमोहन सिंह गत बुधवार को राज्यसभा की सदस्यता से रिटायर हो गये। इसके साथ ही उनका सक्रिय राजनीति से संन्यास भी हो गया। मगर अपने 36 वर्ष के संसदीय जीवन में मनमोहन सिंह ने भारत के प्रधानमन्त्री के रूप में जो छाप छोड़ी वह एेसे महानायक की है जिसने स्वतन्त्र भारत की आर्थिक नीतियों की दिशा पूरी तरह बदल डाली। मनमोहन सिंह को राजनीति में 1991 तक एक बाहर का व्यक्ति समझा जाता था जिनका पिछला जीवन एक सरकारी अफसर का था लेकिन राजनीति में वह अनमने भाव से नहीं आये थे। 1991 में राज्यसभा सदस्य बने मनमोहन सिंह 3 अप्रैल 2024 को रिटायर हो गये। उनके स्वस्थ व दीर्घ जीवन के लिए शुभकामनाएं।

– राकेश कपूर 

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