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चुनावी घोषणाएं और अटल जी का संदेश

चुनावी रण में सम्मिलित सभी राजनीतिक वाणी वीर और युद्धवीर आजकल भारत की जनता से लोक लुभावन वायदे कर रहे हैं। हर ओर नई-नई घोषणाएं हो रही हैं। इन घोषणाओं को सुन-पढ़कर तो ऐसा लगता है कि जैसे हमारे देश के नेताओं के मन, मस्तिष्क में केवल भारत की जनता को सभी प्रकार के कष्टों, अभावों, असुविधाओं और विषमताओं से मुक्त कर देने का एक अनुपम सा उत्साह हिलोरे मार रहा है। यह भी हमें बताया जा रहा है कि हम विश्व के सर्वाधिक अमीर देश बन रहे हैं। पांचवें स्थान पर तो पहुंच ही गए हैं, अर्थव्यवस्था के आधार पर और तीसरे पायदान पर पहुंचने की तैयारी है।
चुनावी घोषणाओं में एक फैशन बन गया है कि यह शाब्दिक चिंता युवा, महिलाओं तथा किसानों की चिंता विशेष रूप से की जा रही है। 18वीं लोकसभा में शिखरासीन होने की चाह में सबसे बड़ा दान, अनुदान महिलाओं को देने की बात कही जा रही है। कांग्रेस पार्टी तो गरीब महिलाओं को एक लाख रुपया प्रतिवर्ष देने की घोषणा कर रही है। पच्चीस गारंटियां भी दे दीं और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री जी तो गारंटियों की गारंटी मोदी को ही कह रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी जी ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में चल रही सरकार द्वारा पिछले दस वर्षों में कई ऐसे काम किए हैं जो स्वतंत्रता के पश्चात से जनता तो चाहती थी, पर सरकारों द्वारा पूरे नहीं किए जा सके थे। धारा 370 को हटाना तो गौरीशंकर की चोटी पर चढ़ने की तरह कठिन माना जा रहा था। वह काम भी पूरा हो गया।
श्रीराम मंदिर भी बना। तीन तलाक और हलाला के कलंक से भी मुक्ति महिलाओं को मिली, पर एक प्रश्न आज भी है जितने भी राजनीतिक दल और जिस-जिसने भी अपना घोषणा पत्र जारी किया उसमें मुफ्त देने की चर्चा तो बहुत हुई, इसलिए मुझे श्री अटल बिहारी वाजपेयी के ऐतिहासिक शब्द याद आते हैं। उन्होंने कहा था कि मुफ्तखोरी आम जनता को आलसी और निट्ठला बना देती है। भारत सरकार को जो उपलब्ध करवाना चाहिए, शिक्षा, चिकित्सा व न्याय। अफसोस यह है कि आज तक ये तीनों ही नहीं मिल पाए और न ही किसी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी ने यह घोषणा की है कि हमारे देश में कोई भी व्यक्ति मनुष्य जन्म पाकर भारत जैसे महान देश का नागरिक होकर शिक्षा से वंचित नहीं रहेगा। आज आईआईटी, आईआईएम तो दूर, डाक्टर, इंजीनियर और वकील बनने के लिए गरीब के बच्चे के पास आर्थिक साधन नहीं। बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं जो गरीबी से जूझते हुए मंजिल पा लेते हैं। लाखों रुपये प्रतिवर्ष खर्च करके राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना तो दूर की बात उसकी तैयारी के लिए भी साधन सभी के पास नहीं हैं। न्याय तो बिल्कुल दिवास्वप्न की तरह है। कभी ये राजनीतिक पार्टी के दमगजे मारने वाले नेताओं ने जेलों में जाकर देखा कि वहां कितने ही निर्दोष आरोपी या अपराधी तिल-तिल कर सड़, मर रहे हैं, जिनकी अपील की अर्जी कभी हाईकोर्ट तक नहीं पहुंच पाती।
सुप्रीम कोर्ट तो बहुत दूर की बात है, जिस देश में सुप्रीम कोर्ट तक न्याय की गुहार लगाने के लिए केवल वही पहुंच सकते हैं जिनके असीम आर्थिक साधन और प्रभाव हो। वैसी ही चिकित्सा की बात है। बहुत थोड़े अस्पताल देश में ऐसे हैं जहां सरकार की सहृदयता व संवेदना के परिणामस्वरूप लोगों को मुफ्त इलाज मिल जाता। देश के अनेक युवक वैज्ञानिक बन रहे हैं। उच्च कोटि के इंजीनियर और डाक्टर भी बन रहे हैं, पर उनमें से कोई विरला ही होगा जो परिवारों की आर्थिक शक्ति के बिना वहां पहुंच गया हो। युवाओं का एक बड़ा वर्ग वह भी है जो विदेश जाने की चाह में पासपोर्ट दफ्तरों के अंदर-बाहर बैठा है। लाखों रुपयों की रिश्वत दे रहा है और वीजा न मिलने पर कभी-कभी देश से बाहर नहीं, दुनिया से बाहर ही चले जाते हैं। नशे की दलदल में फंसकर मौत के मुंह में जाने वाले तो असंख्य हैं। कितना अच्छा होता देश की सभी राजनीतिक पार्टियां यह कहतीं कि उनकी सरकार में कोई आर्थिक साधनों के अभाव में अशिक्षित नहीं रहेगा। कोई धन बल के अभाव में गंभीर बीमारियों का उपचार करवाए बिना मरने को विवश नहीं होगा और युवक देश में ही अपना भविष्य बड़ी आशा के साथ देख सकेंगे।
बात महिलाओं की भी की जाती है। क्या महिलाओं की जरूरत केवल मुफ्त की बस सवारी है? हर महीने दो हजार रपया मिल जाए यही उनका गौरव है। यह ठीक है कि गरीब के लिए दस रुपये भी बहुत हैं, पर गरीबी पर प्रहार क्यों न किया जाए। सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री मुफ्त राशन योजना में सरकारी दावों के अनुसार 80 करोड़ लोगों को पिछले लगभग पांच वर्षों से मुफ्त राशन मिलता है, पर यह किसी भी चुनावी घोषणापत्र में नहीं लिखा गया कि आर्थिक दृष्टि से देशवासियों को इतना संपन्न कर दिया जाएगा कि उन्हें मुफ्त में लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जिस देश में शराब और शराबी समाज को, परिवारों को विनाश की ओर ले जा रहे हैं, रेलवे स्टेशनों के बाहर, बस स्टैंड के निकट जो शराब के ठेके खुले हुए हैं वे कितने घर उजाड़ रहे हैं और कितने लोग सरकार के इसी धन कमाऊ नशे के कारण लीवर, कैंसर, टीबी जैसी बीमरियों का शिकार हो रहे हैं और परिवार टूट रहे हैं। सड़कों पर नाचती मौत भी तो अधिकतर शराब की भेजी हुई है।
महिलाएं मासिक आर्थिक सहायता जो भी घोषणाओं में है पाकर शायद संतुष्ट हों, पर उन महिलाओं की बात कोई नहीं करता जो वेश्यालयों में नारकीय जीवन जी रही हैं। इसलिए देश के कर्णधारों के नाम यह अपील है कि जो हमें चाहिए सरकार से मांगिये। केवल राजनीतिक तंज दूषणबाजी, किसी को जेल में डालना और किसी को निकालना चांदी की जूती पहनना और चांदी के चश्मे से पार्टियां चुनना या वोट डालना जब तक यह चलता रहेगा चार दिन की चांदनी दिखाई दे जाएगी। फिर श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के शब्द शायद कभी सार्थक नहीं हो पाएंगे। याद तो राजनेताओं को अंबेडकर जी के शब्द भी रखने चाहिए। उन्होंने विश्वास से कहा था कि जब देश की एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन जाएगी तो फिर आरक्षण की क्या जरूरत। किसी में हिम्मत है इस संदेश को अपनाने और लागू करने की।

– लख्मीचंद चावला

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