मेरे पिता अश्विनी कुमार जी यद्यपि भाजपा के सांसद रहे और राष्ट्रीय सेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित रहे लेकिन उन्होंने सम्पादक होने के नाते हमेशा अपनी कलम को निष्पक्ष रखा। वह सभी राजनीतिक दलों और राष्ट्रीय मुद्दा पर बेबाक लिखते रहे। मैं भी उनसे प्रेरणा पाकर ही लिख रहा हूं। अब जबकि कांग्रेस में नेतृत्व का संकट बना हुआ तो इस पर भी निष्पक्ष लेखन जरूरी है। कांग्रेस काफी पुरानी पार्टी है और लोकतंत्र में ऐसे राजनीतिक दल का सशक्त होना भी जरूरी है।
क्या हंगामा बरपा है कांग्रेस पार्टी के भीतर। वे लोग बदलाव की बातें कर रहे हैं जो अपनी ही पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आने से घबराते ही नहीं रहे बल्कि पूरी तरह कटे रहे। क्या कयामत है कि राज्यसभा में मौज से स्थान पाने वाले लोग पार्टी को कसरती अन्दाज देने के लिए नेतृत्व में यथा योग्य परिवर्तन करने की दलीलें दे रहे हैं! जो लोग खुद जनता के सीधे सवाल के जवाब से भागते रहे हों वे आज सूरमा बन कर सियासत मंे रोशनी भरने की बातें कर रहे हैं ! सितम देखिये कि एेेसे कांग्रेसी नेता श्रीमती सोनिया गांधी को खत लिख कर कह रहे हैं कि कांग्रेस के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो रहा है इसलिए ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी में संगठनात्मक बदलाव होना चाहिए। जिन्होंने आज तक कभी खुद कुआं खोदने की हिम्मत नहीं की वेे फरमा रहे हैं कि समुद्र को जलविहीन कर डालो। चाहे राज बब्बर हों या जितिन प्रसाद या मनीष तिवारी अथवा आनन्द शर्मा, सभी कांग्रेस के अच्छे दिनों में मौज मनाते रहे और मन्त्री पद की शोभा बढ़ाते रहे मगर जब से यह पार्टी विपक्ष में आयी है तभी से इन्होंने बगलें झांकनी शुरू कर दी हैं और पार्टी के अन्दर ही खामियां निकालनी शुरू कर दी हैं। जितिन प्रसाद तो चार बार लोकसभा चुनाव हारे, मनीष तिवारी की इतनी हिम्मत नहीं कि वह लुधियाना में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक सभा तक बुला सकें, राज बब्बर ‘महान’ उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष एेसे बने कि हुजूर ने मुम्बई में अपना मुख्यालय खोल दिया! क्या गुट है असन्तुष्टों का, कांग्रेस के भीतर ही सारे निठल्ले यह चोला ओढ़ बैठे हैं और उन सोनिया गांधी को नसीहत दे रहे हैं जिन्होंने पार्टी को बुरे वक्त से निकाल कर देश की सत्तारूढ़ पार्टी का रुतबा अता करने में अहम भूमिका निभाई थी। जिन लोगों का काम केवल पार्टी से अच्छे औहदे और सुविधाएं पाने का रहा हो वे आज उपदेश दे रहे हैं। क्या छंटे हुए ‘हीरे’ असन्तुष्ट बने हैं कि आम कांग्रेसी दांतों तले अंगुली दबा कर पूछ रहा है कि क्या ये सब वास्तव में कांग्रेसी हैं? जो लोग यह समझते हैं कि कांग्रेस पार्टी का भविष्य बिना नेहरू-गांधी परिवार की सक्रिय शिरकत के सुरक्षित रह सकता है वे एेतिहासिक गलती पर हैं और इस देश व कांग्रेस पार्टी की हकीकत को नहीं समझते।
पिछली सदी के भारत का इतिहास कांग्रेस पार्टी का इतिहास ही रहा है और पूरे एक सौ वर्ष तक नेहरू-गांधी परिवार की देश के प्रति निर्विवाद निष्ठा और कुर्बानियों का चश्मदीद गवाह रहा है। दुनिया का कोई भी दूसरा देश ऐसा नहीं है जहां एक ही परिवार की छत्र छाया में रहते हुए उसने तरक्की की नई बुलन्दियों को छुआ हो। अतः कांग्रेस के पुरुत्थान की जो भी कहानी लिखी जायेगी वह केवल इस परिवार की नई पीढ़ी के श्रम से तब तक लिखी जाती रहेगी जब तक कि वह राजनीति में सक्रिय रहती है। गौर से देखें और वैज्ञानिक नजरिये से सोचें तो कांग्रेस लोकसभा में केवल 54 सीटें प्राप्त करने के बावजूद एकमात्र एेसी पार्टी है जिसके अवशेष पूरे देश के हर जिले के गांव-गांव में बिखरे पड़े हैं। ये सब पं. नेहरू और इन्दिरा गांधी की छाप को आज भी अपने सीने में दबाये हैं और आज की नई पीढ़ी तक के दिल में कांग्रेस पार्टी के लिए वह स्थान है जो किसी भी राजनीतिक विकल्प के लिए होता है। उनमें स्व. इदिरा गांधी जैसी दृढ़ता का आभास होता है। याद रखा जाना चाहिए कि 1969 तक स्व. इन्दिरा गांधी को भारतीय राजनीति में ‘गूंगी गुड़िया’ कहा जाता था। यह नाम उन्हें समाजवादी नेता स्व. डा. राममनोहर लोहिया ने दिया था, परन्तु इसी वर्ष में जब इन्दिरा जी को लगा कि उनके प्रधानमन्त्री पद को कांग्रेस पार्टी के स्व. निजलिंगप्पा, कामराज, अतुल्य घोष, मोरारजी देसाई आदि न जाने कितने मठाधीश कम आंकने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हें अपनी दकियानूसी सोच का गुलाम बना देना चाहते हैं तो उन्होंने अपने पिता स्व. नेहरू की दीक्षा में प्राप्त राजनीति का पैंतरा चला और पूरी कांग्रेस पार्टी को सीधे जनता से जोड़ते हुए इसके दो टुकड़े कर डाले।
1969 के विभाजन में इन्दिरा जी के खिलाफ गुट में विभिन्न राज्यों के कांग्रेसी मुख्यमन्त्रियों से लेकर सभी बड़े राष्ट्रीय नेता थे, केवल बाबू जगजीवन राम और फखरुद्दीन अली अहमद को छोड़ कर। मगर इन्दिरा जी की नीतियों के चलते देश की जनता उनके साथ हो गई थी जबकि सभी प्रसिद्ध उद्योगपतियों तक ने खुल कर विरोधी कांग्रेस गुट का साथ दिया था। जनता की ताकत को अपने साथ लेकर उन्होंने यह कमाल किया था और यही इस देश की पहचान भी है कि जब जनता में रोष पैदा होता है तो संगठन स्वयं खड़ा हो जाता है और नेता स्वयं नेतृत्व देने लगते हैं। 1989 में हमने यह विश्वनाथ प्रताप सिंह और जनता दल के बारे में देखा था। हालांकि वीपी सिंह ने एक झूठ के कलेवर की आड़ में कांग्रेस पार्टी से दगा किया था। आज की कांग्रेस वस्तुतः राजीव गांधी की कांग्रेस है जिसमें नई पीढ़ी के नाम पर पेशेवर कथित पढ़ेे-लिखे लोगों को प्राथमिकता दी गई थी। जनता से अधकटे इन लोगों ने कांग्रेस की असली ताकत देश का गरीब-गुरबा को पार्टी की सम्पत्ति नहीं मान कर ऐतिहासिक गलती कर डाली थी जिसकी वजह से पार्टी का पराभव काल शुरू हुआ और जातिवादी व सम्प्रदायवादी राजनीति की शुरूआत 1989 से ही इस देश में शुरू हुई।
क्या कोई इस बात का जवाब दे सकता है कि 1996 में स्व. सीताराम केसरी के नेतृत्व में कांग्रेस के बदहवास हो जाने पर इसे होश में लाने का काम किसने किया? यह नेहरू-गांधी परिवार की विरासत श्रीमती सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने विपक्ष में रहते हुए 2004 तक इसे सत्ताधारी पार्टी में बदल डाला। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी क्योंकि सोनिया जी ने राजनीति का विमर्श सम्प्रदायवाद से विकास वाद का बदला था। विध्वंस के विमर्श को सृजन में बदलना बहुत ही दुष्कर कार्य था जिसे सोनिया जी ने करके दिखाया। पार्टी के 23 नेताओं का यह कहना कि 2014 से देश का युवा भाजपा को वोट दे रहा है तो इसमें उन्हीं नेताओं का दोष है जो ऐसा आरोप लगा रहे हैं। राज्यसभा में बैठे लोगों ने क्या कभी कोई ऐसा कारनामा किया जिससे विपक्ष की भूमिका केन्द्र में आ सके? यह काम गांधी परिवार की नई पीढ़ी ही कर रही है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक आज हो रही है, देखना है कि मंथन से क्या निकलता है। आलम यह है कि-
‘‘बरगद की बातें करते हैं, गमलों में उगे हुए लोग।’’