हाथरस कांड और न्यायपालिका - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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हाथरस कांड और न्यायपालिका

स्वतन्त्र भारत में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा न्याय को प्रतिष्ठापित करने में निर्विवाद रही है क्योंकि फैसला करते वक्त इसने सत्ता के बड़े से बड़े प्रतिष्ठान को भी तराजू पर तोलते समय किसी प्रकार की गफलत नहीं दिखाई।

स्वतन्त्र भारत में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा न्याय को प्रतिष्ठापित करने में निर्विवाद रही है क्योंकि फैसला करते वक्त इसने सत्ता के बड़े से बड़े प्रतिष्ठान को भी तराजू पर तोलते समय किसी प्रकार की गफलत नहीं दिखाई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाथरस कांड का जिस तरह स्वयं संज्ञान लेकर इस मामले का सत्य उजागर करने की मंशा दिखाई उससे यही पता लगता है कि हमारी जनतान्त्रिक व्यवस्था हर सूरत में संविधान के शासन की ही पैरोकार है।
हालांकि हाथरस कांड के परिस्थिति जन्य साक्ष्य चीख-चीख कर गवाही दे रहे हैं कि विगत 14 सितम्बर को इस जिले के बुलगढ़ी गांव की बाल्मीकि कन्या के साथ अमानुषिक अत्याचार करके उसे मृत्यु का ग्रास बना दिया गया परन्तु विगत 29 सितम्बर को अर्ध रात्रि के बाद जिस तरह पुलिस ने उसका दाह संस्कार किया उसने सभ्य मानव समाज के सभी नियमों को न केवल भंग किया बल्कि संविधान प्रदत्त नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का भी दाह संस्कार करने का कुकृत्य किया। यह सनद रहना चाहिए कि सामूहिक बलात्कार की पीड़िता उस युवती के अन्तिम संस्कार से पहले पुलिस ने उसके परिवार वालों को उसका मुंह तक देखने नहीं दिया।
इसीलिए उसके परिजनों ने कल उच्च न्यायालय में गुहार लगाई की वे उसकी अस्थियों का तब तक विसर्जन नहीं करेंगे जब तक कि उन्हें न्याय नहीं मिल जाता। यह पूरी तरह तर्क संगत है क्योंकि परिवार वालों को जब यह तक नहीं मालूम कि जिस युवती का 29 सितम्बर की मध्य रात्रि को अन्तिम संस्कार किया गया वह कौन थी तो तब तक केवल उन्हें पुलिस के कथन पर ही विश्वास  करना होगा और उच्च न्यायालय ने पुलिस की भूमिका पर ही सबसे बड़े सवाल उठाये हैं मगर इस पूरे कांड में सबसे बड़ा आरोप हाथरस के जिलाधीश पर है जिसकी निगरानी में यह सारा कार्य हुआ और जिसने घटना के बाद पीड़िता के परिवार वालों को धमकाने की कोशिश की।
जिला प्रशासन ने हाथरस कांड में पीड़िता पक्ष को न्याय देने के स्थान पर इस कांड में अभियुक्त बनाये गये लोगों के हिमायतियों के साथ जिस तरह सहयोगात्मक रवैया अपना कर पूरे मामले को जातिवाद के रंग में रंग देने की कोशिशों से आंखें मूंद कर हाथरस के माहौल को बदलने में मदद की, वह भी अपने आप में अचम्भे से कम नहीं है क्योंकि प्रशासन का काम पीड़ित को न्याय देने का होता है न कि अत्याचारी को हौंसला देने का।
बेशक हमारा कानून कहता है कि जब तक किसी भी आरोपी पर अदालत में आरोप सिद्ध न हो जाये तब तक वह गुनहगार नहीं माना जा सकता मगर इस पूरी प्रक्रिया में पुलिस की भूमिका इस तरह नियत की गई है कि वह आरोपी के अपने गुनाह छिपाने के हर प्रयास को बेनकाब कर दे और न्यायालय के सामने सच को लेकर जाये परन्तु हाथरस में तो गजब का खेल खेला गया और यह कहा गया कि यदि पीड़ित युवती का दाह संस्कार अर्ध रात्रि में न किया जाता तो कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती थी।
यह ऐसा कुतर्क है जो कानून के सामने पल भर भी नहीं ठहर सकता है क्योंकि मृत युवती एक साधारण नागरिक थी जिसने मरने से पहले मैजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया था कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया है परन्तु राज्य के कानून-व्यवस्था के पुलिस महानिदेशक ने भी इसका संज्ञान न लेते हुए बालात्कार की उस परिभाषा का रट्टा लगाया जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये कानून में लिखी गई थी।
अतः उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश ने इस महानिदेशक को पहले बलात्कार की परिभाषा पढ़कर आने की फटकार लगाई।  दरअसल हाथरस में जिस तरह अभियुक्तों की जाति वाले लोगों का सामूहिक प्रलाप जघन्य कांड के बाद शुरू हुआ वह पूरे मामले को मोड़ने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है। इन कोशिशों में जो राजनीतिक पुट बाद में भरा गया उससे यही साबित हुआ कि अपराधियों को बचाने की भूमिका तैयार की जा रही है। यह अत्यन्त दुखद इसलिए है कि एेसे मामलों में जहां कमजोर वर्ग के लोगों के साथ अन्याय होने की आशंका पैदा होती हो, उनमें राजनीतिक स्तर पर पीड़ितों के साथ खड़ा होना स्वतन्त्र भारत में सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने की प्रबल इच्छा ही मानी जाती रही है।
यह कार्य विपक्ष में रहते हुए भाजपा भी बखूबी करती रही है और कांग्रेस भी अब कर रही है।  हमें याद रखना चाहिए कि 1978 के मार्च महीने में दिल्ली में पहली गैर कांग्रेसी सरकार स्व. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनने के बाद बिहार में पटना से 80 मील दूर एक बहुत पिछड़े हुए सड़क मार्ग विहीन गांव ‘बेलछी’ में जुलाई महीने में ही दलित जाति के 11 लोगों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी।
ये हत्याएं दो जातियों की गैंगवार के चलते ही हुई थीं मगर तब रायबरेली से अपना लोकसभा चुनाव हारी श्रीमती इन्दिरा गांधी इस बेलछी गांव में हाथी पर बैठ कर गई थीं और उन्होंने दलित समाज के लोगों को सांत्वना दी थी। इसके बाद दिल्ली में इन्दिरा जी की सरकार काबिज होने पर 1983 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के ‘सिसवां’ गांव में ही दलितों पर अत्याचार होने की घटना पर उस समय राज्य विधानसभा में जनसंघ के नेता स्व. माधवकान्त त्रिपाठी ने तब की राज्य की कांग्रेस सरकार को हिला कर रख दिया था और पूरी विधानसभा को थरथरा  दिया था।
लोकतन्त्र में निर्बल के साथ खड़ा होना राजनीति का मूल नियम होता है क्योंकि शासन की बागडोर राजनीतिक दलों को ही जनता सौंपती है। अतः न्याय के समर्थन में उनका खड़ा होना स्वाभाविक प्रक्रिया होती है।
हाथरस कांड का उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर यही सिद्ध किया है कि कानून हर व्यक्ति के लिए बराबर होता है इसीलिए न्यायाधीश महोदय ने पुलिस से सवाल किया कि यदि युवती किसी सम्पन्न घराने की होती तो क्या तब भी उसके साथ हाथरस जैसा व्यवहार किया जाता? यही प्रश्न भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका में आम लोगों का अटूट विश्वास पैदा करता है और सन्देश देता है कि इस देश में संविधान का शासन ही चलेगा क्योंकि संविधान में हर अमीर-गरीब को बराबर के एक समान अधिकार दिये गये हैं। 
-आदित्य नारायण चोपड़ा

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