नई दिल्ली : जब कभी भी देश में आम चुनाव होते हैं राजनीतिक पार्टियां नामवर खिलाड़ियों को अपने बेड़े में शामिल करने के लिए उठा पटक में जुट जाती हैं। हालांकि ज़्यादातर पार्टियां चुनाव जीतने और सरकार बनाने के बाद खेलों और खिलाड़ियों को भुला देती हैं परंतु मौके पर चौका मारने से कोई भी नहीं चूकना चाहता। इस बार भी खिलाड़ियों के कंधे पर निशाना साधने का खेल खेला जा रहा है लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि खिलाड़ी से संसद में पहुंचे किसी भी महाशय ने पलटकर भारतीय खिलाड़ियों की सुध नहीं ली या उनकी सुनी नहीं गई। फिर चाहे कीर्ति आज़ाद, असलम शेर ख़ान, चेतन चौहान, नवजोत सिद्धू, राज्य वर्धन राठौर, प्रसून बनर्जी, ज्योतिर्मोय सिकदर या राज्य सभा में पहुंचे सचिन तेंदुलकर, मैरी काम, दिलीप टिर्की आदि क्यों ना हों, किसी ने भी देश के खिलाड़ियों के लिए दमदार आवाज़ नहीं उठाई।
खेल मंत्री राज्यवर्धन राठौर भले ही अपनी पीठ थपथपाएं लेकिन उन्होंने कभी भी राष्ट्रीय खेल विधेयक और देश के राष्ट्रीय खेल के बारे में कोई सवाल नहीं किया। हैरानी वाली बात यह है कि आज़ादी के 72 साल बाद भी देश के राष्ट्रीय खेल का कहीं कोई अता पता नहीं है। बस यूं ही हॉकी को राष्ट्रीय खेल का पट्टा पहना रखा है। देशभक्त होने का दम भरने वाले हमारे नेता अपने स्वार्थों के लिए भारतीय संविधान में मनचाहा छेड़छाड़ कर सकते हैं परंतु किसी खेल को देश के राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिलाने का साहस नहीं दिखा सकते। इसबार मुक्केबाज़ी में पहला ओलंपिक पदक जीतने वाले विजेंद्र सिंह चुनाव मैदान में कूद पड़े हैं।
मीडिया हलकों में दो ओलंपिक पदक विजेता सुशील पहलवान के चुनाव लड़ने और टिकट पक्का होने की खबरें दौड़ रही थीं लेकिन सुशील ने पता नहीं क्यों यू टर्न ले लिया। सूत्रों की माने तो सुशील ने फिलहाल चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला इसलिए किया है क्योंकि वह एक और ओलंपिक में भाग लेने और पदक जीतने के लिए गंभीर हैं। उधर गौतम गंभीर पिछले कुछ महीनों से भाजपा से टिकट पाने के लिए प्रयासरत थे और उनकी मनोकामना पूरी हो गई है।
बिजेंद्र दक्षिण दिल्ली से कॉंग्रेस के प्रत्याशी हैं तो गंभीर भाजपा के लिए पूर्वी दिल्ली से लड़ेंगे। इस बार चुनाव मैदान में और भी कई खिलाड़ी किस्मत आजमा रहे हैं। राजस्थान से खेल मंत्री राठौर, नामी थ्रोवर कृष्णा पूनिया के सामने हैं। कुछ अन्य खिलाड़ी भी खेल उपलब्धियों के दम पर दलगत राजनीति की दलदल में कूद सकते हैं। लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि क्या कोई खिलाड़ी भारतीय खेलों की खुशहाली के लिए संसद में आवाज़ उठा पाएगा और क्या कोई खिलाड़ी नेता खेल बिल पास कराने की दिशा में ठोस प्रयास करेगा?
(राजेंद्र सजवान)