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ईरान : जनता की आवाज सुनो !

ईरान की मजहबी इस्लामी तानाशाह सरकार को जिस प्रकार अपने मुल्क की अवाम की मांगों के सामने झुकना पड़ा है, वह इस बात का प्रमाण है कि जब जनता सड़कों पर निकल आती है तो बड़े-बड़े सूरमा घुटने टेक देते हैं और सिंहासन हिलने लगते हैं।

ईरान की मजहबी इस्लामी तानाशाह सरकार को जिस प्रकार अपने मुल्क की अवाम की मांगों के सामने झुकना पड़ा है, वह इस बात का प्रमाण है कि जब जनता सड़कों पर निकल आती है तो बड़े-बड़े सूरमा घुटने टेक देते हैं और सिंहासन हिलने लगते हैं। ईरान की सरकार ने देश की महिलाओं वस्त्राें को पोशाक में तब्दील कर दिया था और उनके लिए हिजाब जरूरी बना दिया था। इस बाबत एक कानून बनाकर देश में महिला वस्त्र आचार संहिता को लागू देखने का काम एक विशेष पुलिस बल को दिया गया। इस पुलिस ने सितम्बर महीने में एक 22 वर्षीय युवती ‘महसा अमीनी’ को हिजाब कायदे से न लगाने के ‘जुर्म’ में गिरफ्तार किया और हिरासत में इतने जुल्म ढहाये की उसकी मृत्यु हो गई। पुलिस हिरासत में युवती की मृत्यु होने के बाद ईरानी महिलाओं का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने अपने देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों की सड़कों पर निकल कर इस अत्याचार के विरुद्ध प्रदर्शन किया। उनके इस हिजाब विरोधी आन्दोलन को पूरे देश के पुरुषों का भी भरपूर समर्थन मिला जिसकी वजह से यह आंदोलन पूरे ईरान में ही नहीं फैला बल्कि इसकी गूंज दुनिया के अन्य सभ्य देशों में भी सुनाई पड़ने लगी। अब ईरान की मजहबी सरकार ने ऐलान किया है कि वह विशेष कथित नैतिक पुलिस को समाप्त कर देगी मगर उसने हिजाब कानून को रद्द करने के बारे में कुछ नहीं कहा। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि ईरानी महिलाएं सरकार को झुकाने के लिए अपना विरोध प्रदर्शन जारी रख सकती हैं। दरअसल ईरान में जिस तरह इस्लाम के नाम पर मानवीय अधिकारों का हनन किया गया है, उसका हिजाब कानून एक नमूना है।
क्या कयामत है कि मजहब के नाम पर आम जनता के लिबास के कानून भी बना दिये जाते हैं औऱ महिलाओं को एक ‘वस्तु’ के रूप में देखा जाता है। उनके घर से बाहर पांव धरते ही उन पर सरकारी कानून लागू होने लगते हैं और उन्हें एक विशिष्ट किस्म की पोशाक पहनने के लिए बाध्य किया जाता है। सवाल यह है कि महिला को अपना चेहरा या सिर ढकने की जरूरत क्यों पड़े? प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक संरचना अगर पुरुष से अलग की है तो इससे उसके मानवीय अधिकार पुरुष के मुकाबले कम या अलग क्यों हो जाते हैं। स्त्री जाति को गुलाम की नजर से देखना क्या उसके मानव होने की अनुभूति को जख्मी नहीं करता है? क्या समाज बिना स्त्री–पुरुष के सहयोग और सहकार के आगे बढ़ सकता है। बल्कि हकीकत तो यह है कि स्त्री ही नई पीढि़यों को तैयार करती है और उन्हें संस्कारी बनाती है तथा नये वक्त की चुनौतियों का मुकाबला करने के काबिल बनाती है तो फिर यह कैसे संभव है कि उसे ही विभिन्न बन्धनों में बांधकर समय से पीछे धकेल दिया जाये। 1979 तक ईऱान एक आधुनिक व वैज्ञानिक सोच वाला देश समझा जाता था। इसकी महिलाओं को पुरुषों  के बराबर ही हक हासिल थे। मगर इस वर्ष ईरान में ऐसी कथित क्रान्ति हुई जो पिछली सदियों में ले जाने वाली थी। आयतुल्लाह खुमेनी के नेतृत्व में यहां इस्लामी क्रान्ति हुई जिसने ईरान को सीधे सैकड़ों वर्षों पुराने मजहबी निजाम में पहुंचा दिया। इस निजाम ने सबसे ज्यादा प्रतिबन्ध स्त्रियों पर ही लगाये क्योंकि यहां की महिलाएं पूरे इस्लामी संसार में केवल तुर्की को छोड़ कर सर्वाधिक आधुनिक सोच की मानी जाती थीं और समाज के हर क्षेत्र में आगे थीं।
इस्लामी क्रांति ने इस धारा को ही पलट दिया और स्त्री को एक वस्तु के रूप में देखने के लिए विवश किया। गौरवशाली प्राचीन सांस्कृतिक विरासत वाले देश में यह स्थिति पिछले 42 वर्ष से चल रही थी जिसके खिलाफ विद्रोह होना स्वाभाविक था, क्योंकि इसकी पुरातन संस्कृति आर्य संस्कृति ही है, जिसकी वजह से 1979 तक इस देश के शासक शहंशाह रजा पहलवी  उपाधि ‘आर्य मिहिर’ (आर्यों का सूरज) की थी। मगर इस्लामी क्रान्ति ने पुरानी महान विरासत को मिट्टी में मिलाते हुए जो नया निजाम बनाया वह इस देश को पीछे आठवीं सदी में ले गया। ईरान की महिलाओं के समर्थन में यूरोप समेत अन्य एशियाई देशों से भी समर्थन की सशक्त आवाजें आयीं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई मौकों पर ईऱान की सरकार को शर्मसार होना पड़ा। मगर अक्तूबर महीने से शुरू हुए हिजाब विरोधी आन्दोलन में तीन सौ से ज्यादा इरानी स्त्री-पुरुषों को पकड़कर वहां की कथित नैतिक पुलिस मौत के घाट सुला चुकी है। यह मानवीय अधिकारों का ज्वलन्त सवाल है जिसका जवाब ईऱानी सरकार से विश्व पंचायत को लेना चाहिए। हाल ही में दोहा ( कतर) में चल रहे विश्व फुटबाल कप प्रतियोगिता में भाग लेने वाली ईरानी फुटबाल टीम ने जिस प्रकार हिजाब विरोधी आन्दोलन के समर्थन में अपने ही देश के राष्ट्रगान का बहिष्कार किया वह भी ईरान के इतिहास में एक ऐतिहासिक क्षण था। जनता में इतनी ताकत होती है कि अगर वह सड़कों पर आ जाये तो बड़े से बड़ा तास्सुबी हुक्मरान भी पनाह मांगने लगता है और मजहब के नाम पर किये जाने वाले जुल्म की असलियत भी सामने आने से नहीं रुक सकती। जुम और जौर की एक हद होती है। 
जौर से बाज आये पर बाज आयें क्या?
कहते हैं हम तुमको मुंह दिखलायें क्या?
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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