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महमूद मदनी की ‘जमीयत’

यह कैसी विडम्बना है कि ‘स्व. मौलाना हुसैन अहमद मदनी’ का पोता महमूद मदनी ‘देवबन्द’ में आयोजित ‘जमीयत-उल-उलमाएं हिन्द’ के जलसे में ऐलान कर रहा है कि भारत में मुसलमानों का सड़कों पर निकलना दुश्वार कर दिया गया है और ये बेइज्जत होकर भी सब्र कर रहे हैं।

यह कैसी विडम्बना है कि ‘स्व. मौलाना हुसैन अहमद मदनी’ का पोता महमूद मदनी ‘देवबन्द’ में आयोजित ‘जमीयत-उल-उलमाएं हिन्द’ के जलसे में ऐलान कर रहा है कि भारत में मुसलमानों का सड़कों पर निकलना दुश्वार कर दिया गया है और ये बेइज्जत होकर भी सब्र कर रहे हैं। जमीयत के इस दो दिवसीय भारत भर से जुड़े देवबन्दी मौलानाओं के इजलास में जिस तरह की जबान बोल कर भारत में नफरत के माहौल की वजाहत की गई वह जमीयत के पुराने चमकते राष्ट्रवादी इतिहास से मेल नहीं खाती है। काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र व मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर उठे विवाद के बाद देश के मुसलमानों की एक राष्ट्रवादी संस्था द्वारा इस तरह के ख्यालों का इजहार किया जाना आम हिन्दोस्तानी के लिए हैरत की बात हो सकती है क्योंकि ‘जमीयत’ वह संस्था है जिसने भारत की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के साथ कदम से कदम मिला कर भारत की एकता व अखंडता के लिए न केवल संघर्ष किया बल्कि कट्टरपंथी मुस्लिम सोच के खिलाफ पाकिस्तान निर्माण के विरुद्ध मुसलमानों में तहरीक भी चलाई।
पूरा देश जानता है कि ‘देवबन्द दारूल उलूम’ की सरपरस्ती करने वाले स्व. मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने 1920 के करीब जब महात्मा गांधी से तुर्की के खलीफा की उस्मानी सल्तनत के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा चलाई जा रही सैनिक मुहीम की मुखालफत में भारत के मुसलमानों द्वारा शुरू की गई तहरीक के हक में उनकी हिमायत मांगी थी तो बापू सहर्ष तैयार हो गये थे और यहीं से जमीयत और कांग्रेस पार्टी का मजबूत गठबन्धन शुरू हो गया था जो भारत के स्वतन्त्रता मिलने तक जारी रहा। इतना ही नहीं स्व. हुसैन अहमद मदनी ने पाकिस्तान का मोटा तवस्सुर 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग के इजालास में पेश करने वाले ‘अल्लामा इकबाल’ को भी खुली चुनौती दी थी और उन्हें पाकिस्तान के मुद्दे पर ललकारा था। बाद में 1936 में ब्रिटिश राज में पहले प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव के बाद 1938 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘मुतैहदा कौमियत और इस्लाम’ जिसमें उन्होंने साबित किया कि हिन्दू और मुसलमान दो कौमें या दो राष्ट्र नहीं हैं बल्कि भारत के तसव्वुर को कबूल करने वाले इसकी सरजमीं पर रहने वाले ऐसे लोग हैं जिनकी राष्ट्रीयताएं अलग-अलग नहीं हो सकती। अपनी बात को उन्होंने इस्लाम के नजरिये से भी सही साबित किया और भारत के आजाद होने के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान के वजूद को मुसलमानों और जिन्ना की गलती करार ही दिया। हालांकि उन्होंने मुसलमानों के पर्सनल लाॅ का समर्थन भी किया परन्तु इसका एक एेतिहासिक कारण यह था कि सरदार पटेल के नेतृत्व में 1931 में कराची में हुए कांग्रेस महाअधिवेशन में ही भारत के नागरिकों को मूलभूत मानवीय अधिकार देने का प्रस्ताव पारित किया गया था और इसमें मुसलमान नागरिकों को विशेष छूट दी गई थी और कहा गया था कि अपने घरेलू मामलों में वे अपने इस्लामी कानूनों का पालन कर सकेंगे। ऐसा  संभवतः मुसलमानों को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में जोड़ने के लिए और मुस्लिम लीग से दूर रहने की मंशा के साथ किया गया था क्योंकि इससे एक साल पहले ही 1930 में अल्लामा इकबाल ने  ब्रिटिश साम्राज्य के जेरे साया ही आजाद मुस्लिम राज्यों के गठन की मांग इलाहाबाद में कर डाली थी और अंग्रेजों ने 1909 में ही मुसलमानों का पृथक निर्वाचन मंडल बना दिया था। अर्थात मुसलमान केवल मुस्लिम प्रत्याशियों को ही किसी भी चुनाव में वोट डालते परन्तु प्रस्ताव की सार्थकता उसी दिन 15 अगस्त को समाप्त हो गई जब अंग्रेजों ने पाकिस्तान का निर्माण करा डाला।
अतः स्वतन्त्र भारत के संविधान में भी कांग्रेस के कराची प्रस्ताव को बरकरार रखना सर्वथा अनुचित था जबकि स्वतन्त्र भारत में हिन्दुओं के लिए नागरिक आचार संहिता बना कर उसे लागू कर दिया गया (हालांकि यह काम किश्तों में हुआ)। अतः सवाल उठना वाजिब है कि आजादी के 75वें साल में आज के भारत में ‘मुस्लिम पर्सनल लाॅ’ जारी रहने की क्या वजह हो सकती है। मौलाना महमूद मदनी को यह समझना चाहिए कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का लफ्ज भारत की सियासत में आम लोगों के बीच क्यों मकबूल हुआ? इसकी वजह एक ही है कि कांग्रेस पार्टी की दिल्ली में बैठी हुई मरकजी सरकारों ने कभी भी मुसलमानों में रोशन ख्याली भरने की कोशिश नहीं की जिससे मुस्लिम नागरिक भारत के संविधान में दिये गये नागरिक मूल अधिकारों का फायदा उठा कर अपनी तरक्की कर सकें। उन्हें मजहब के घेरे में ही खुद के बांधे रखने के रास्ते दे दिये गये जिसकी वजह से मुसलमान राष्ट्रीय विकास धारा में शामिल रहने से पीछे होते गये। मगर क्या कयामत है कि आज भी महमूद मदनी मांग कर रहे हैं कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ को वे नहीं छोड़ेंगे और दूसरी तरफ मुसलमानों की बेहतर शिक्षा की मांग कर रहे हैं। तालीम या शिक्षा आदमी को लियाकतदार बनाती है और उसे वैज्ञानिक सोच देती है जिससे वह किसी भी समाज में फैली कुरीतियों पर सवाल उठा सके।
मुसलमानों के इस देश के विकास में योगदान को कम करके नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि वे इसी भारत के बाइज्जत नागरिक हैं। मगर दूसरी तरफ महमूद मदनी को यह भी सोचना चाहिए कि केवल धार्मिक रीति-रिवाजों और रवायतों की कट्टरता को जारी रख कर कोई भी कौम कभी तरक्की नहीं कर सकती। मुसलमान कुछ सियासी पार्टियों के ‘वोट बैंक’ नहीं हो सकते बल्कि वे अपनी मर्जी के मालिक ‘वोटर’ ही हो सकते हैं। मौलाना महमूद को यह स्वीकार करना चाहिए कि पूर्व में भारत के इतिहास में जो नाइंसाफी हिन्दुओं के साथ उनके पूजा स्थलों को लेकर की गई है उसे सुधारा जाना चाहिए जिससे समाज में हिन्दू-मुस्लिम एकता का नया अध्याय शुरू हो सके। नाहक ही कुछ मुल्ला-मौलवी मुसलमानों की ‘अना’ का मुद्दा बना रहे हैं। महमूद मदनी विद्वान हैं उनकी नजर मैं गांधीवादी कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘नई इबारत’ की ये पंक्तियां करता हूं
कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो
बिना समझे , बिना बूझे खेलते जाना 
एक जिद को जकड़ कर ठेलते जाना 
गलत है बेसूद है, कुछ रच के सो, कुछ गढ़ के सो…

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