केन्द्र सरकार द्वारा घोषित नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ऐसा दस्तावेज कहा जायेगा जिसमें यथास्थिति को बदलने की इच्छा शक्ति बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के शिकंजे में कस कर फड़फड़ाती सी लगती है। इसमें शिक्षा के व्यवसायीकरण से मुक्ति पाने की दिशा गुम हो गई है जबकि आज के समाज की सबसे बड़ी जरूरत यही है जिससे हमारे राष्ट्र निर्माताओं का शिक्षित और सबल भारत का सपना पूरा हो सके। एक बार फिर हम शिक्षा के उस सूत्र को पकड़ने में विफल रहे हैं जिसमें देश की नई पीढि़यों को माध्यमिक (हाई स्कूल) स्तर तक एक समान व एक स्तरीय शिक्षा प्रदान करने की गारंटी हो सके और इंडिया व भारत का भेद समाप्त हो सके। आजाद भारत में यह सपना प्रख्यात गांधीवादी समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया का था कि-
‘‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान
टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।’’
नई शिक्षा नीति में जिस तरह विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर स्थापित करने की अनुमति दी गई है और प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा अपनी मातृ-भाषा या क्षेत्रीय भाषा में पाने की छूट दी गई है उससे शिक्षा के व्यवसायीकरण को ही और बढ़ावा मिलेगा तथा स्कूली स्तर पर ही अमीर-गरीब के बीच की खाई को स्थायी स्वरूप मिलेगा। शिक्षा भारत के संविधान की समवर्ती सूची का विषय है। अतः विभिन्न राज्य इसे अपने-अपने हिसाब से लागू करने के लिए स्वतन्त्र होंगे। इसके साथ ही शिक्षा नीति के नये दस्तावेज को संसद में बहस के लिए खुला न रख कर हम इस बारे में विविध विचारों की गुणग्राह्यता से भी वंचित हो गये हैं। सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि शिक्षा उस यथास्थितिवाद को तोड़े जो आज भी चपरासी के बेटे को चपरासी बनने के लिए मजबूर करती है और अफसर के बेटे को अफसर बनने का मार्ग प्रशस्त करती है। केवल पाठ्यक्रमों को छोटा या बदलाव करके हम यह लक्ष्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं जबकि गुणवत्ता की प्राथमिक शिक्षा पर ही अमीरों के बच्चों का अधिकार केवल इसलिए सुनिश्चित हो कि उनके पास पर्याप्त धन होता है। शिक्षा के खरीदने के इस चलन को तोड़ने का कोई भी प्रयास नई शिक्षा नीति में नजर नहीं आता है।
बेशक यह प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है कि दसवीं व 12वीं की बोर्ड की परीक्षाओं से लेकर विभिन्न उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने के खातिर पुस्तक का कीड़ा बन जाने की परिपाठी को तोड़ने का प्रयास किया गया है और बढ़ते कोचिंग स्कूलों के चलन पर रोक लगाने की दिशा में कारगर कदम उठाये गये हैं मगर इससे उस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती जिससे भारत की युवा पीढ़ी शिक्षा के महंगे होते बाजार से मुक्ति पा सके।
विदेशी विश्वविद्यालयों को आमन्त्रित करके हम अपने देश में एक ऐसी अभिजात्य संस्कृति को जन्म दे देंगे जो हमारे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के समक्ष भारी संकट पैदा कर सकती है और इनमें शिक्षा के स्तर पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। कोई भी विश्वविद्यालय अपने गुरुजनों (फैकल्टी) से ही पहचाना जाता है। विदेशी विश्वविद्यालय इस फैकल्टी को ही सबसे पहले अपनी तरफ खींचेंगे और शिक्षा का नया प्रतियोगी बाजार विकसित करेंगे। भारतीय संस्कृति शिक्षा के व्यवसायीकरण का मूलतः विरोध करती है और कहती है कि दुनिया में केवल शिक्षा ही एेसा ज्ञान है जो बिक नहीं सकता मगर हम तो स्वयं बाजार खड़े कर रहे हैं। स्नातक स्तर की शिक्षा प्रणाली को चार वर्ष की बना कर और इसमें प्रवेश व बाहर आने की छूट देकर हम एक ऐसा नया गरीब वर्ग तैयार कर लेंगे जो न अच्छी नौकरी के योग्य रहेगा और न ही घरेलू काम धन्धे के। जब तक शिक्षा के माध्यम की भाषा का सम्बन्ध सीधे रोजगार से नहीं जोड़ा जाता तब तक क्षेत्रीय भाषा में स्नातक तक की पढ़ाई करने का लाभ कैसे मिल सकेगा। एक तरफ विदेशी विश्वविद्यालय खोल कर और दूसरी तरफ क्षेत्रीय भाषाओं में ग्रेजुएट तैयार करके हम किस दिशा में आगे बढ़ पायेंगे? मतलब साफ है कि जैसे पहले थे वैसे ही रहेंगे अर्थात शिक्षा पाकर भी गरीब का बेटा गरीब ही बना रहेगा और अमीर का बेटा विशेषाधिकारों से लैस होगा क्योंकि वह बचपन से ज्यादा पैसा खर्च करके अच्छी पढ़ाई पढ़ा है और अंग्रेजी स्कूलों में उसकी दीक्षा हुई है।
लचीली स्नातकोत्तर प्रणाली हो या स्नातक प्रणाली, दोनों ही बेरोजगारों की संख्या को बढ़ाने का काम करेंगी। इनमें सर्टििफकेट या डिप्लोमा लेने वाले की हैसियत नौकरी के बाजार में क्या होगी? क्या इस तरफ गौर नहीं किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग कोठारी कमीशन की रिपोर्ट के बाद से जिस तरह काम कर रहा था उससे उसकी उपयोगिता साबित हुई थी। टैक्नीकल बोर्ड का भी इसमें विलय करके उच्च शिक्षा आयोग बना देने से हम तकनीकी शिक्षण संस्थानों के साथ कहीं ऐसा अन्याय न कर डालें कि भेड़-बकरी सभी एक साथ तुल जाएं। इसके साथ ही मानव विकास संसाधन मन्त्रालय का नाम फिर से शिक्षा मन्त्रालय हो जायेगा। इसका स्वागत किया जाना चाहिए, परन्तु असली सवाल तो यह है कि हम शिक्षा पर अपने सकल उत्पाद का कितने प्रतिशत खर्च करते हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में नवाचार पर कितना जोर रहता है क्योंकि आने वाला समय नवाचार (टैक्नोलोजी इन्नोवेशन) का ही है जिससे किसी भी देश की आर्थिक प्रगति बन्धी हुई है। हम मुश्किल से शिक्षा पर सकल उत्पाद का दो प्रतिशत भी खर्च नहीं करते जबकि विकासशील समझे जाने वाले कई देश छह प्रतिशत तक खर्च करते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य हमारे राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों से गायब रहते हैं और यदि रहते हैं तो वे कोई चुनावी मुद्दा नहीं बन पाते। यह चिन्तनीय स्थिति ही कही जायेगी क्योंकि स्वयं राजनीतिक दल ही शिक्षा को महत्व नहीं देना चाहते।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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