धार्मिक मामलों में स्त्री-पुरुष बराबरी या एक समान अधिकारों को लेकर एेसे प्रश्न खड़े हो रहे हैं जिनका सम्बन्ध भारत के संविधान में प्रदत्त सभी नागरिकों को बिना किसी लिंग भेद के एक दृष्टि से देखते हुए अधिकार सम्पन्न करने से है। इसके साथ ही भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह अपनी इच्छानुसार अपने धर्म का चयन कर सकता है, उसके अनुसार अपनी जीवन-यापन पद्धति पर आचरण कर सकता है। इसे हमने धार्मिक स्वतन्त्रता के रूप में जाना जिसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है। हमने सरकार के धर्म निरपेक्ष रहने की व्याख्या मूलरूप से संविधान के उन विभिन्न अनुच्छेदों में की जिनका सम्बन्ध आम भारतीय के नागरिक अधिकारों से है। अनुच्छेद 14 व 21 में हमारे संविधान निर्माताओं ने इसका खुलासा किया परन्तु धर्म की स्वतन्त्रता और नागरिक समानता में वहां जाकर टकराव होता है जब धार्मिक परंपराओं व मान्यताओं या व्यावहारिक कर्मकांड में स्त्री-पुरुष के बीच का भेद मुखर होता है और एक को दूसरे से ज्यादा सामर्थ्य प्रदान करता है।
निश्चितरूप से यह धार्मिक कृत्यों का दायरा है जिससे सामाजिक व्यवस्था ( पब्लिक आर्डर ) का मुद्दा तब तक नहीं जुड़ता जब तक कि दोनों में से कोई एक पक्ष कानूनी रूप से अपने साथ भेदभाव या स्वयं को प्रताडि़त किये जाने का जायज सवाल न उठाये और यह संवैधानिक दृष्टि से इस दायरे में आता हो परन्तु इसमें अड़चन तब पैदा होती है जब किसी विशेष धर्म के मुख्य पुजारियों या पादरियों अथवा वाइजों या उलेमाओं द्वारा पालन किये जा रहे या अनुययियों से उसका पालन करने को कहे जाने की प्रणाली या व्यवस्था में राज्य का कोई भी प्रमुख अंग ( विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका ) हस्तक्षेप करते हैं। सम्पूर्ण रूप में सरकार या राज्य का गठन इन्ही तीनों अंगों के बीच अधिकारों के बंटवारे से होता है। बेशक न्यायपालिका का रुतबा स्वतन्त्र होता है मगर वह संविधान के शासन का ही अंतनिहित क्रिया मूलक अंग है। संविधान जिस रूप में धार्मिक स्वतन्त्रता की गारंटी देता है उसमे इसके भीतर की संरचना के सभी पक्ष शामिल होंगे परन्तु इसे मानने वाले नागरिक को संविधान यह भी अधिकार देता है कि उसे उन्हें मानने या उसके अनुसार आचरण करने के लिए कोई दबाव नहीं डाल सकता या जबर्दस्ती नहीं कर सकता। इस निजी स्वतन्त्रता की गारंटी भी संविधान देता है।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत का संविधान निजी तौर पर प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है सामूहिक तौर पर नहीं। अतः बहुत स्पष्ट है कि किसी भी धर्म के अन्दर चलने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार या परंपरा अथवा पूजा पद्धति या कर्मकांड के खिलाफ विद्रोह करने या उसमें सुधार या संशोधन करने का हक उस धर्म को मानने वाले व्यक्ति के पास है जिसके लिए वह धार्मिक दायरे में ही समर्थन जुटाने का अभियान चला सकता है। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि धार्मिक दायरे में स्त्री-पुरुष के बीच होने वाले भेदभाव के मामलों में क्या न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना चाहिए? धार्मिक मान्यताएं प्रायः मायावी चमत्कारों व कल्पनाशीलता से निर्देशित होती हैं जिनका वैज्ञानिक आधार ढूंढना धर्म की अवमानना या किसी के विश्वास या आस्था को ठेस पहुंचाने तक की श्रेणी में डालने में कोई दिक्कत नहीं होती।
अतः सर्वोच्च न्यायालय की एक मात्र महिला न्यायाधीश श्रीमती इन्दु मल्होत्रा ने केरल के सबरीमला देव स्थानम् में सभी आयुवर्ग की महिलाओं को प्रवेश देने के सम्बन्ध में जो अल्पमत फैसला इसके विरोध में दिया था वह भारत की जमीनी हकीकत का संज्ञान लेते हुए नहीं था एेसा नहीं कहा जा सकता परन्तु भारत संविधान से चलने वाला देश है और अंतिम फैसला और कानून वहीं होगा जो देश का सर्वोच्च न्यायालय बहुमत से देगा और सबरीमला देवस्थान में महिलाओं को एक समान छूट देने का फैसला आ चुका है। अतः राज्य की मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व वाली वामपंथी सरकार का कर्त्तव्य है कि वह इस फैसले का पालन होते हुए देखे और उसे क्रियान्वित करे परन्तु इसके पालन में जो दिक्कतें आ रही हैं उनका भी संज्ञान लिया जाना जरूरी है और राज्य सरकार इनकी भी अनदेखी नहीं कर सकती है किन्तु जनभावना और संविधान में विरोधाभास हो एेसा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान कोई जड़ पुस्तक नहीं है बल्कि जीवित गतिमान दस्तावेज है जिसमें संशोधन का अधिकार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के पास है।
अतः यह हर दौर में जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है परन्तु इसके मूल सैद्धांतिक ढांचे में फेरबदल किये बगैर हो और इसे होता देखने का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय के पास है जिसकी वजह से वह कई बार संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को असंवैधानिक तक करार दे देता है परन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका को धार्मिक मामलों के अनदरुनी दायरे में प्रवेश करना चाहिए? जिसे न्यायमूर्ति श्रीमती इन्दु मल्होत्रा ने उठाया था। हम यदि यह सोच रहे हैं कि यह मामला सबरीमला देवस्थान तक आकर रुक जायेगा तो गलती पर हैं क्योंकि केरल के ही एक मुस्लिम स्वयं सेवी महिला संगठन ‘नीरा’ ने यह फैसला किया है कि वह देशभर की मस्जिदों में मुस्लिम स्त्रियों को नमाज अता करने के अधिकार से लैस करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जायेंगी।
जाहिर तौर पर किसी भी धर्म की आन्तरिक संरचना और इसके व्यावहारिक ढांचे के स्वरूप को तभी न्यायिक प्रक्रिया के घेरे में डाला जा सकता है जबकि किसी पीडि़त व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार को छीना जा रहा हो, जैसा कि स्व. राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान मुस्लिम महिला शाहबानो को तलाक दिये जाने के बाद उसका गुजारा खर्चा न दिये जाने का मामला था। सर्वोच्च न्यायालय ने तब शाहबानो के हक में फैसला बिना इस्लाम धर्म की भीतरी पर्तों में जाये बिना पूर्णतः मानवीय आधार पर दिया था। इसी प्रकार तीन तलाक के मामले में भी विद्वान न्यायाधीशों ने पूरी सावधानी के साथ बहुमत से अपना फैसला बिना इस्लाम की भीतरी बनावट में प्रवेश किये सुनाया और अपने फैसले को इस्लाम की रुह से ही लिखते हुए कहा कि इस धर्म में एक ही बार में तीन तलाक कह कर पत्नी से मुक्ति पाने का कोई विधान नहीं है। अतः यह पूरी तरह असंवैधानिक या गैर कानूनी माना जायेगा और एेसा करने वाले का निकाह बाकायदा और बदस्तूर जारी माना जायेगा। अतः हमें लोकतन्त्र के तहत बहुत सावधानी के साथ एेसा रास्ता चुनना होगा जिससे लोकशक्ति का विकास धर्म के रास्तों के ही चक्कर काटने से बच सके क्योंकि संविधान से ऊपर न जन भावना होती है और न कोई आस्था या विश्वास होता है। भारत की एकल आस्था सर्वप्रथम सर्वोच्च संविधान में है। इससे विचलित होते ही हम अपने राष्ट्रधर्म से विमुख हो जाते हैं।